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________________ ११८ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न होते हैं जिन्होंने स्पष्ट रूप से स्त्री की प्रव्रज्या का निषेध किया था और यह तर्क दिया था कि स्त्रियाँ स्वभाव से ही शिथिल परिणाम वाली होती हैं, इसलिये उनके चित्त की विशुद्धि सम्भव नहीं है। साथ ही यह भी कहा गया कि स्त्रियाँ मासिक धर्म वाली होती हैं, अतः स्त्रियों में नि:शंक ध्यान सम्भव नहीं है । १५ यह सत्य है कि शारीरिक तथा सामाजिक कारणों से पूर्ण नग्नता स्त्री के लिये सम्भव नहीं है और जब सवस्त्र की प्रव्रज्या एवं मुक्ति का निषेध कर दिया गया तो स्त्रीमुक्ति का निषेध तो उसका अनिवार्य परिणाम था ही । पुनः आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरिग्रह के साथ-साथ स्त्री के द्वारा अहिंसा का पूर्णतः पालन भी असम्भव माना। उनका तर्क है कि स्त्रियों के स्तनों के अन्तर में, नाभि एवं कुक्षि ( गर्भाशय ) में सूक्ष्मकाय जीव होते हैं। इसलिये उनकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है ।" यहाँ यह स्मरणीय है कि कुन्दकुन्द ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं वे वस्तुतः स्त्री की प्रव्रज्या के निषेध के लिये हैं । स्त्रीमुक्ति का निषेध तो उसका अनिवार्य फलित अवश्य है क्योंकि जब अचेलता ही एकमात्र मोक्ष मार्ग है और स्त्री के लिये अचेलता सम्भव नहीं है तो फिर उसके लिये न तो प्रव्रज्या सम्भव होगी और न ही मुक्ति । हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द के इन तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर सम्भवतः यापनीय परम्परा के 'यापनीयतन्त्र' ( यापनीय आगम ) नामक ग्रन्थ में दिया गया है। वर्तमान में यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है किन्तु इसका वह अंश जिसमें स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है, हरिभद्र के ललितविस्तरा में उद्धृत होने से सुरक्षित है। उसमें कहा गया है कि स्त्री अजीव नहीं है, न वह अभव्य है, न सम्यग्दर्शन के अयोग्य है, न अमनुष्य है, न अनार्य क्षेत्र में उत्पन्न है, न असंख्यात आयुष्य वाली है, न वह अतिक्रूरमति है, न उपशान्त मोह है, न अशुद्धाचारी है, न अशुद्धशरीरा है, न वह वर्जित व्यवसायवाली है, न अपूर्वकरण की विरोधी है, न नवे गुणस्थान से रहित है, न लब्धि से रहित है और न अकल्याण भाजन है तो फिर वह उत्तम धर्म अर्थात् मोक्ष की आराधक क्यों नहीं हो सकती ?१७ ― आचार्य हरिभद्र ने उक्त यापनीय सन्दर्भ की विस्तृत व्याख्या भी की है। वे लिखते हैं. जीव ही सर्वोत्तम धर्म, मोक्ष की साधना कर सकता है और स्त्री जीव है, इसलिये वह सर्वोत्तम धर्म की आराधक क्यों नहीं हो सकती ? यदि यह कहा जाय कि सभी जीव तो मुक्ति के अधिकारी नहीं हैं जैसे अभव्य, तो इसका उत्तर यह है कि सभी स्त्रियाँ तो अभव्य भी नहीं होतीं । पुनः यह तर्क भी दिया जा सकता है कि सभी भव्य भी तो मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं। जैसे - मिथ्यादृष्टिभव्यजीव, तो इसका उत्तर यह है कि सभी स्त्रियाँ तो सम्यक् दर्शन के अयोग्य भी नहीं कही जा सकतीं। यदि इस पर यह कहा जाय कि स्त्री के सम्यग्दृष्टि होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525030
Book TitleSramana 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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