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________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ : ९७ गुरु सबमें एक ही परमतत्त्व विराजमान होता है, इसलिए सब बराबर हैं कोई बड़ा या, छोटा नहीं है। इसमें वृत्ति, बुद्धि और विवेक को स्पष्ट करते हए कहा गया है- 'वृत्ति वास्तव में मन की प्रखर प्रवृत्ति है। बुद्धि मन का समीकरण है। बुद्धि भी मन का ही एक अंश है। सम्बोधि सम्यक् बोध, विवेक है। पुन: बाइबिल के विचार से मिलता-जुलता विचार प्रस्तुत किया गया है। जिसमें कहा गया है- 'जिन-जिन के प्रति भी द्वेष-भाव है, दुश्मनी का भाव है, उन-उनके प्रति प्रेम का भाव, मैत्री का भाव लाने का प्रयास करना। इस तरह इस पुस्तक में अध्यात्म का अन्तर-मन्थन, चेतना का रूपान्तर आदि विषय विवेचित हैं। यह पुस्तक योग साधना में रुचि रखने वाले लोगों के लिए खासतौर से उपयोगी है। ऐसे तो सामान्य पाठक भी इससे लाभान्वित हो सकते हैं। पुस्तक की बाहरी रूपरेखा काफी आकर्षक है, छपाई साफ है, सुन्दर है। इसके लिए लेखक एवं व्यवस्थापक सभी बधाई के पात्र हैं। डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा सो परम महारस चाखै, लेखक-श्री चन्द्रप्रभ, प्रकाशक-श्री जितयशा फाउन्डेशन, ९सी एस्प्लानेड रो ईस्ट, कलकत्ता-६९, पृ०-१२८, मूल्य-२० रु० । 'सो परम महारस चाखै' के रचयिता श्री चन्द्रप्रभ जी हैं। पुस्तक का नामकरण आनन्दघन या घनानन्द की रचना 'अवधू नाम हमारा राखै, सो परम महारस चाखै'। पर आधारित है। इस पुस्तक में कबीर, घनानन्द, मीरा आदि सन्तों की रचनाओं को प्रस्तुत करते हुए आध्यात्मिकता एवं भौतिकता को विवेचित करने का प्रयास हुआ है। किन्तु ग्रन्थकार पर घनानन्द का अधिक प्रभाव जाहिर होता है, क्योंकि प्रत्येक भाग या अध्याय के प्रारम्भ में उनके पद अंकित है, जो उस अध्याय की पूर्वपीठिका की ओर संकेत करते हैं। कहा गया है- आम आँखें दूसरों को देखती हैं, वे अपने-आप को नहीं देखतीं लेकिन चेतना में जीने वाले की तो हजारों आंखें होती हैं और वह हर आँख से अपने आप को देखता है। महात्मा बुद्ध ने कहा था 'आत्म दीपो भव' । संसार को खोलने की चाबियों से मुक्ति का ताला नहीं खुलता। अत: ज्ञानी उस चाबी को प्राप्त करते हैं जिससे मुक्ति का द्वार खुलता है। सद्गुरु व्यक्ति की मूर्छा को तोड़ने और मुक्तिमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने का काम करता है। इसीलिए सद्गुरु पारस होता है। 'साधुता की सुगन्ध वेश से नहीं वरन् उसके अन्तर-हृदय से आती है। जिसका मन भटक रहा है वह सन्त होकर भी गृहस्थ है।' इन उक्तियों से लेखक की वैचारिक गरिमा प्रकाशित होती है। पुस्तक की बाह्याकृति सुन्दर है, छपाई साफ है। आशा है पाठक इसका स्वागत करेंगे। लेखक और व्यवस्थापक इस उपयोगी कृति के लिए साधुवादाह हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Oniडॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा ...
SR No.525027
Book TitleSramana 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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