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श्रमण/जुलाई-सितम्बर / १९९६
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय 1 एकै आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।।
मुंडिये मुंडिय मुंडिया सिर मुंडिउ चित्तुण मुंडिया । चित्तहं मुडणु जिंकमउ संसारहं खंडणुतिं कियउ ।।
केंसों कहा विग्गरिया जौ मुड़ै सौ बार । मन को काहे न मुंडिये जामें विषै विकार ।।
वय तप संयम मूलगुण मूढहं मोक्खुण वुत्तु । जाव ण जाणइ एक्क पर, सुद्धउ भाउ पवित्तु ।।
तित्यहिं तित्यु भमंताहं मूढ़हं मोक्खुण होई ।
किया जप किया तपु संजमो, किया वरतु किया असनानु । जब लगि जुगति न जानीए भाव भगति भगवानु ।
तीरथ करि करि जग मुवा डूंधे पाणी न्हाइ ।
मणु मिलियउ परमेसरहो पर मेसरु वि मणस्य । विणि वि समरस हुइ रहिय पुज्जु चढ़ावउं कस्स ।।
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