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________________ ६ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ विस्तृत वर्णन मिलता है। १४ आचार्य कुन्दकुन्द (७वीं शती) ने नियमसार, समयसार आदि में मग्गणाठाण, गुणठाण और जीवठाण का भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है। किन्तु कुन्दकुन्द ने जीवठाण शब्द का प्रयोग जीवों के जन्मग्रहण की विविध योनियों के अर्थ में किया है। इससे यह भी फलित होता है कि मूलाचार, भगवती आराधना तथा कन्दकुन्द के काल तक जीवस्थान और गुणस्थान दोनों की अलग-अलग और स्पष्ट धारणाएँ बन चुकी थीं। चूँकि उपर्युक्त सभी ग्रन्थ पांचवीं शताब्दी के बाद के हैं अत: एक बात तो निश्चित हो जाती है कि पांचवीं शताब्दी के बाद ही गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई और इसीकाल में गुणस्थान के कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, विपाक आदि से सम्बन्ध निश्चित किये गये। चूँकि गुणस्थानों के साथ कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा आदि की चर्चा सर्वप्रथम प्राचीन कर्म ग्रन्थों में ही पाई जाती है और कर्मप्रकृति तथा प्राचीन कर्मग्रन्थ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी की रचनाएँ हैं अत: गुणस्थान सिद्धान्त के विकास काल को पांचवीं से सातवीं शताब्दी के मध्य स्थिर किया जा सकता है। चूँकि गुणस्थान सिद्धान्त का पूर्ण विकसित सिद्धान्त दिगम्बर परम्परा के गोम्मटसार में पाया जाता है, जो लगभग १०वीं शताब्दी की रचना है अत: इसके विकास का काल पांचवीं से दसवीं शताब्दी माना जा सकता है। गुणस्थान सिद्धान्त की पूर्व अवस्थाएँ जाहिर है कि यह गुणस्थान सिद्धान्त शून्य से उत्पन्न नहीं हुआ होगा, उसकी कुछ पूर्वावस्थाएँ भी रही हैं। गुणस्थान सिद्धान्त की सबसे निकटवर्ती पूर्व अवस्था तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित आध्यात्मिक विकास की निम्न दस अवस्थाएँ हैं १. सम्यग्दृष्टि, २. श्रावक, ३. विरत, ४. अनन्तानुबन्धिवियोजक, ५. दर्शन मोह क्षपक, ६. उपशमक, ७. उपशान्तमोह, ८. क्षपक, ९. क्षीणमोह और १०. जिन। १५ इन अवस्थाओं में मिथ्यादृष्टि, शाश्वादन, मिश्र और अयोगी केवली इन चार अवस्थाओं को छोड़कर गुणस्थान के शेष दस अवस्थाओं के पूर्वरूप इनमें देखे जा सकते हैं। स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र में भी ये अवस्थाएँ किसी आगमिक आधार से ही ली गई होगी। इस सम्बन्ध में जैनदर्शन के बहुश्रुत विद्वान् प्रो. सागरमल जैन की मान्यता है कि इन दस अवस्थाओं का आगमिक आधार आचारांगनियुक्ति के सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति में पाया जाता है। १६ वे नियुक्ति गाथाएं निम्न हैं सम्मत्तुपत्ती सावए य विरए अणंतकम्मसे । दसणमोहक्खवए उवसामन्ते य उवंसते ।। खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढी भवे असंखिज्जा । तविवरीओ कालो संखिज्ज गुणाइ सेढीए । For Private & Personal Use Only 37 ART Freihe Se 88% Jain Education International
SR No.525027
Book TitleSramana 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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