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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
Ni. Su. Bha. 3182 Campā aṇamgaseņo, pamcacchara theranayaņa dumavalael Viha pāsaņayaņa sāvaga, iṁgiņi uvavāya ņamdivarell also 104 and its parallels.
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न राग - न द्वेष
मोतीलाल सुराना, इन्दौर
बात पुराने समय की है। जब गुरुजी के आश्रम में क्या राजा, क्या प्रजा, सभी के लड़के पढ़ने जाते थे। और तो और, खाना पकाने की लकड़ी भी पढ़ने वाले लड़के जंगल में जाकर काटकर लाते थे।
गुरुजी ने लड़कों को समझा रखा था कि जंगल में सूखे झाड़ की या लूंठ की ही लकड़ी लाना। हरे झाड़ काटकर नहीं लाना। वृक्ष हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं। यदि जंगल में झाड़ नहीं रहे तो दूषित हवा से हमारा जीवित रहना मुश्किल हो जायेगा।
एक लम्बे समय के बाद गुरुजी बीमार पड़े तो अनुभव के आधार पर अपना अन्तिम समय जानकर राजकुमार को तथा सेठ के लड़के को जंगल में अपनी चिता के लिये लकड़ी लेने भेजा। दोनों लकड़ियाँ लेकर आये पर राजकुमार तो सूखी लकड़ियाँ लेकर आया, पर सेठ का लड़का पास से ही हरा झाड़ काटकर लकड़ियाँ ले आया।
गुरुजी का अन्तिम समय जानकर लड़कों के पालक भी इकट्ठे हो गये थे। गुरुजी बोले- राजकुमार की लकड़ियों से मुझे जलाना पर सेठ के लड़के के हाथ की एक भी लकड़ी मेरी चिता में मत रखना। लोगों को लगा कि गुरुजी राजा की चापलूसी कर रहे हैं। गुरूजी ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि न तो मेरा किसी पर राग है, न किसी पर द्वेष। राजा का लड़का अभी तक पचासों नये झाड़ लगा चुका है, पर सेठ का लड़का तो हरे झाड़ काटना ही जानता था लगाना नहीं। इसीलिये मैंने राजकुमार की लकड़ियाँ चिता में लगाने की बात कहीं।
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