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श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९६
सो सब झूठो होउ जगतपति के परसादै
जा प्रसाद तैं मिलै सर्व सुख दुःख न लाघै ।। ६ ।।
इन पंक्तियों का सन्देश यही है कि जो कुछ पाप कार्य पूर्व में किए हैं वे 'झूठे' हो जाएं। बड़ा अजीब लगता है। जो कार्य हुआ है, वह तो हो चुका है, वह झूठा कैसे होगा ? यहाँ जैनदर्शन कहता है कि जो तुझसे हुआ उसमें तू तो निमित्त मात्र था। तू उन किए गए कार्यों का स्वामी अपने आपको मानता है यह तुम्हारी बड़ी गलती है । पूर्वकृत अच्छे कार्य का अहंकार एवं बुरे कार्यों का दर्द इसलिए है कि तू उन कार्यों का कर्ता स्वयं को मान लेता है । कर्ता न बनकर मात्र निमित्त समझ लेने से अहंकार एवं दुःख हल्के हो सकते हैं। अतः ऐसी त्रुटिपूर्ण मान्यता को सामायिक के समय में झूठी मान्यता के रूप में स्वीकारना लाभप्रद एवं उचित है।
पूर्वकृत कर्मों से इस प्रकार निवृत्ति पाने को आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रतिक्रमण
कहा है
शुभ और अशुभ अनेकविध, के कर्म पूरव जो किये । उनसे निवर्ते आत्म को, वो आतमा प्रतिक्रमण है ।। समयसार नाटक ३८३//
इसी प्रकार सामायिक के अन्तर्गत प्रत्याख्यान का अर्थ होता है भविष्य के समस्त कार्यों से निर्वृत्ति, यानी भविष्य के संभावित कार्यों का भी अपने आपको कर्ता न मानकर निमित्त मानना । निमित्त की मान्यता स्वीकारते ही हमारी भावी कार्यसूची का भार कम हो जाता है। ज्ञानी को प्रति समय ऐसा ज्ञान रहता है। अज्ञानी किन्तु जिज्ञासु साधक कम से कम कुछ मिनट के लिए अपने आगामी कार्य के बोझ को सामायिक के समय उतारता है।
वर्तमान के कार्यों का कर्ता न मानना आलोचना कहलाता है। प्रत्याख्यान व आलोचना के सम्बन्ध में भी इस प्रकार की विवेचना समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने की है।
समताभाव के अन्तर्गत साधक यह स्वीकारता है कि कोई भी पदार्थ या व्यक्ति बुरा नहीं है । समस्त पदार्थों एवं व्यक्तियों से मोह, राग, द्वेष, कम से कम सामायिक के काल में छोड़ने का संकल्प इस प्रक्रिया में होता है। आचार्य योगीन्दु देव १० कहते हैं
-द्वेष दो त्यागकर, धारे समताभाव |
यह सामायिक जानना, भाखँ जिनवर राव ।।
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