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________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ : २१ ग्रामीण जैनमन्दिर प्रयाग जनपद प्राचीन काल से ही जैन धर्म एवं संस्कृति का प्रधान केन्द्र बना हुआ है। अत: इसके ग्रामीणाञ्चल में भी जैनमन्दिरों, धर्मशालाओं एवं कलाकृतियों का होना स्वाभाविक ही है। कहा जाता है कि भगवान् महावीर के समय में कौशाम्बी और पभोसा क्षेत्र में दस हजार मन्दिर एवं धर्मशालायें विद्यमान थीं। १७ परन्तु इस समय उनकी संख्या अत्यन्त न्यून हो गयी है। पभोसा के समीप चम्पहा बाजार में एक दिगम्बर जैन मन्दिर है। इसमें स्थापित मूर्ति खेत में मिली थी, जो ईस्वी सन् के पूर्व की मानी जाती है। पाली का प्राचीन मन्दिर तो नष्ट हो चुका है परन्तु नवीन मन्दिर बन गया है। इसमें अनेक प्राचीन प्रतिमायें विराजमान हैं। इसी प्रकार सरायँ अकिल, बेरई, कोड़हारघाट, दारानगर, शाहजादपुर आदि ग्रामों में भी जैनमन्दिर हैं। स्थानीय अनुश्रुतियों के अनुसार प्राचीन काल में शाहजादपुर एक समृद्धिशाली जैन नगर था। यहाँ दो सौ जैनमन्दिर एवं बहुसंख्यक जैन परिवार थे। कौशाम्बी, भदैनी, चन्द्रावती, आदि तीर्थक्षेत्रों में विद्यमान दिगम्बर जैन मन्दिरों एवं धर्मशालाओं के निर्माता बाबू प्रभुदासजी के पूर्वज इसी ग्राम के निवासी थे। यहीं से वे वाराणसी और बाद में आरा चले गये थे।१८ कविवर विनोदीलाल भी इसी ग्राम के निवासी थे। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन धर्म के साथ प्रयाग जनपद का सम्बन्ध युगादि से है। यहाँ इस धर्म का प्रचार आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के समय से ही आरम्भ हो गया था। इसके पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ (८७७-७७७ ई० पू०) एवं भगवान् महावीर (छठी शती ई०पू०) के समय तक यह जनपद जैनधर्म और संस्कृति का प्रधान केन्द्र बना रहा। वत्सनरेश शतानीक एवं उदयन के शासन-काल में भी इस को धर्म फूलने-फलने का भरपूर अवसर प्राप्त हुआ। उस समय यहाँ असंख्य जैनमन्दिर और जैन बस्तियाँ विद्यमान थीं। चीनी यात्री ह्वेनसाँग के समय ( सप्तम शताब्दी ईसवी) में भी यहाँ जैनधर्म का व्यापक प्रचार था। अकेले कौशाम्बी में ही ५० मन्दिर विद्यमान थे। परन्तु मध्यकाल में यह भूभाग मुसलमानों के आधिपत्य में आ गया। फलत: यहाँ की सपूर्ण सांस्कृतिक विरासत क्षत-विक्षत होने लगी। इसकी कला का विनाश किया गया। मन्दिर-मूर्तियाँ स्तूप, आयागपट्ट आदि तोड़ डाले गये। फिर भी यहाँ के धर्मप्राण जैनबन्धु निराश नहीं हुए। वे स्वधर्मपालन के साथ-साथ मन्दिरों के जीर्णोद्धार एवं नवनिर्माण में लगे रहे। इससे प्रयाग आज भी एक पावन जैन तीर्थक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है और भविष्य में भी रहने की पूर्ण आशा है। सन्दर्भ१. महाभारत, वन०,८७/१८-१९, मत्स्य पु०१०९/१५ २. एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयत् । प्रदेश: स प्रजागाख्यो यत: पूजार्थयोगतः।। -हरिवंश० ९/९६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525027
Book TitleSramana 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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