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________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ : १०१ ‘सागर मन्थन' में कुल चौबीस शीर्षक हैं, जिसमें दर्शन, धर्म, आचार आदि विश्लेषित हैं। इसमें हनुमान को परम पुरुष भगवान् के रूप में विवेचित किया गया है। क्योंकि वे न्याय के पक्षधर थे। उन्होंने सब कुछ त्यागकर अन्त में दिगम्बरत्व धारण किया था अर्थात् वे महान् त्यागी थे। इसी शीर्षक के अन्तर्गत कहा गया है- “धर्म की सही-सही पहचान हमें हो जायेगी उसी दिन भक्त और भगवान् की बीच की दूरी समाप्त हो जायगी।" यह विचार अद्वैतवेदान्त के अभेदवाद से साम्य रखता है। क्योंकि उसमें ज्ञान की प्राप्ति की स्थिति को आत्मा-परमात्मा की अभेद स्थिति या ब्रह्मलीन स्थिति माना गया है। इसमें जैन तत्त्वमीमांसा एवं आचार मीमांसा को सूत्र रूप में बताते हुए कहा गया है कि जैन दर्शन का बृहद अनेकान्त है और अनेकान्त का हृदय है समता। 'चलती चक्की देखकर-" शीर्षक में कबीर की उक्ति पर विचार किया गया है कि संसार में जन्म-मरण रूपी दो पाटों के बीच सभी पिसते रहते हैं, सभी सुख की बाधा तथा दुःख के भय से ग्रस्त होते हैं, यह संसारी जीवों की सबसे बड़ी समस्या है। किन्तु इसके साथ ही कमाल द्वारा बताए गए तरीके को भी महत्त्व दिया गया है। जो व्यक्ति धर्म रूपी कील के सहारे अपने को पार कर लेगा वह साबुत बच जाएगा। धर्म सभी दुःखों को दूर करने वाला होता है। इसी तरह इस ग्रन्थ में ब्रह्मचर्य, दान, उपकार, अर्हत् भक्ति, जन्म कल्याणक, तप कल्याणक, ज्ञान कल्याणक, मोक्ष कल्याणक आदि के वर्णन हैं। चूँकि यह ग्रन्थ एक जैनाचार्य के द्वारा रचित है जो अनीश्वरवाद में विश्वास करते हैं, इसलिए इसमें व्यक्ति को आत्मवादी तथा कर्मवादी बनने का उपदेश दिया गया है। राम, सीता और हनुमान के विषय में जो बातें कही गई हैं वे पउमचरिउं यानी जैन रामायण के आधार पर कही गई हैं जिनसे ब्राह्मण परम्परा के पाठक सहमत नहीं होंगे। परन्तु अपनी-अपनी मान्यताओं को लेकर उलझने के बजाय उन बातों को महत्त्व देना अच्छा होगा जो मानव जीवन के लिए कल्याणकारी हैं। अपने विषय की दृष्टि से यह पुस्तक उपयोगी है। इसका स्वागत जैन एवं जैनेतर विद्वान करेंगे, ऐसा विश्वास होता है। पुस्तक की छपाई एवं साज-सज्जा आकर्षक है। इसके लिए लेखक एवं प्रकाशक दोनों ही साधुवादार्ह हैं। डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा स्वरूप सम्बोधन-पञ्चविंशति, सम्पादक-डॉ० सुदीप जैन, प्रकाशक-पं० अरुण कुमार शास्त्री, सचिव शास्त्रप्रचार व प्रसार विभाग, अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन, शाखा-अलवर (राजस्थान), पृ० ५८, मूल्य-१५ रुपए। - स्वरूप सम्बोधन-पञ्चविंशति आचार्य अकलंकदेव की रचना है। प्रायः अकलंक देव को न्याय के क्षेत्र में प्रतिष्ठित किया गया है, बल्कि जैन न्याय को अकलंक न्याय के नाम से भी सम्बोधित करते हैं। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में तत्त्वमीमांसीय विवेचन की ही बहुलता है। आत्मा, मोक्ष, मोक्षमार्ग आदि इसमें स्पष्टत: विश्लेषित हैं। मोक्षमार्ग के रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525027
Book TitleSramana 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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