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________________ ८ : श्रमण/अप्रैल-जून/ १९९६ 'आद् गुणः ।’१८ पाणिनि 'अवर्णस्येवर्णादिनैदोदरल्' । १९ हेम प्रत्याहार की पद्धति न अपनाने के कारण ही पाणिनि के अच् को ये स्वर कहते हैं, जिसे पाणिनि हल् कहते हैं, उसे ये व्यञ्जन कहते हैं, जिसे पाणिनि अल् कहते हैं उसे हेमचन्द्र वर्ण कहते हैं । पाणिनि की वर्णमाला ( माहेश्वर सूत्र ) को न मानकर हेमचन्द्र प्रचलित वर्णमाला को ही स्वीकार करते हैं। प्रचलित वर्णमाला इन्होंने सरलता की दृष्टि से ही अपनायी है । प्रचलित वर्णमाला का अभ्यासी अध्येता जब बाद में पाणिनीय वर्णमाला सीखता है तो उसे कठिनाई तो अवश्य होती है। ४. हेमचन्द्र ने पाणिनि की तुलना में बहुत कम संज्ञाएँ प्रस्तुत की हैं। संज्ञाओं की संख्या कम रहने पर एक लाभ यह होता है कि संज्ञाओं की विशिष्टताओं के कारण तत्तद् स्थलों में होने वाली भिन्न व्याकरणात्मक प्रक्रिया तकनीकों से बचा जा सकता है। हेम की अधिकांश संज्ञाएँ पाणिनि की संज्ञाओं से स्वरूप एवं अर्थ दोनों दृष्टियों से मिलती जुलती हैं। कुछ में केवल नाम मात्र का अन्तर है । पाणिनि की सवर्ण संज्ञा एवं हेम की स्व संज्ञा एक ही है। इसी प्रकार पाणिनि की प्रातिपदिक संज्ञा एवं हेम की नाम संज्ञा समान है। हेम ने वाक्य संज्ञा दी है पर पाणिनि वाक्य संज्ञा नहीं दे पाये थे। हेम की ह्रस्व, दीर्घ एवं प्लुत संज्ञाएँ पाणिनि का ही अनुधावन करती हैं। ५. हेमचन्द्र के प्रयोगों में लोकभाषा की विशेषताओं का भी समावेश पाया जाता है। 'शिट्याद्यस्य द्वितीयो वा २० सूत्र द्वारा उन्होंने व्यवस्था दी है कि श, ष और स के परे रहते वर्ग के प्रथम अक्षर को द्वितीय अक्षर होता है। उदाहरणार्थ क्षीरम् - ख्षीरम् अप्सरा अफ्सरा डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार “भाषा विज्ञान की दृष्टि से हेम का यह नियम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी कारण हेम का उक्त नियम सभी संस्कृत वैयाकरणों की अपेक्षा नया है । " २१ यहाँ यह संकेत करना है कि हेम के उक्त प्रयोग का प्रेरक कात्यायन का सम्भवत: वह वार्तिक रहा होगा जिसे उन्होंने पाणिनि के इस 'णोः कुक् टुक् शरि' ८/ ३ / २८ सूत्र के ऊपर लिखा था। कात्यायन का वार्तिक है। - (वा० ) चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम् । यहाँ कात्यायन ने स्पष्ट रूप से शर के परे रहते चय् के स्थान पर द्वितीय अक्षर का विधान किया है। उदाहरण प्राङ् क् षष्ठः, प्राङ् ख् षष्ठः, प्राङ् षष्ठः । अत: उक्त स्थल में हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रवृत्ति के प्रथम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org - Jain Education International
SR No.525026
Book TitleSramana 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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