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: श्रमण/अप्रैल
- जून / १९९६
३. विद्यासागरसूरि के पट्टधर गुणसुन्दरसूरि (वि० सं० १४९७ १५२९) ४. गुणसुन्दरसूरि के पट्टधर गुणनिधानसूरि (वि० सं० १५२९ - १५३६)
५. गुणनिधानसूरि के पट्टधर गुणसागरसूरि ( वि० सं० १४४३-१५४६)
६. गुणसागरसूरि के शिष्य (?) लक्ष्मीसागरसूरि ( वि० सं० १५४९ - १५७२ )
मलधारी गुणसुन्दरसूरि के शिष्य सर्वसुन्दरसूरि ने वि० सं० १५१० / ईस्वी सन् १४५४ में हंसराजवत्सराजचौपाई" की रचना की। यह इस गच्छ से सम्बद्ध वि० सम्वत् की १६वीं शती का एकमात्र साहित्यिक साक्ष्य माना जा सकता है।
मतिसागरसूरि (वि० सं० १४५८
१४७९ ) प्रतिमालेख
विद्यासागरसूरि (वि० सं० १४७६
१४८८) प्रतिमालेख
गुणसुन्दरसूरि (वि० सं० १४९७ - १५२९ ) प्रतिमालेख
४३ प्रतिमालेख
८ प्रतिमालेख
जैसा कि अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत हम देख चुके हैं वि० सं० १४९७ से वि० सं० १५२९ तक के ४३ प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में गुणसुन्दरसूरि का नाम मिलता है। हंसराजवत्सराजचौपाई के रचनाकार सर्वसुन्दरसूरि ने भी अपने गुरु का यही नाम दिया है, अतः समसामयिकता के आधार पर दोनों साक्ष्यों में उल्लिखित गुणसुन्दरसूरि एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं।
सर्वसुन्दरसूरि
(वि० सं० १५१० में हंसराजवत्सराजचौपाई अपरनाम कथासंग्रह के रचनाकार)
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वि० सं० की १५वीं शती के उत्तरार्ध और १६वीं शती तक के इस गच्छ से सम्बन्ध साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर गुरु-शिष्य परम्परा की जो तालिका निर्मित होती है, वह इस प्रकार है :
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२ प्रतिमालेख
६ प्रतिमालेख
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गुणनिधानसूरि
(वि० सं० १५२९ - १५३६ ) प्रतिमालेख
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