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श्रमण/अप्रैल-जून/ १९९६
जैसा कि प्रारम्भ में कहा गया है कि इस गच्छ की सद्गुरुपद्धति नामक एक गुर्वावली भी मिलती है। प्राकृत भाषा में २६ गाथाओं में रची गयी यह कृति वि० सं० की १४वीं शती की रचना मानी जा सकती है। इसमें अभयदेवसूरि से लेकर पद्मदेवसूरि तक के मुनिजनों की गुरु परम्परा इस प्रकार दी गयी है :
अभयदेवसूरि
हेमचन्द्रसूरि
विजयसिंहसूरि
श्रीचन्द्रसूरि
मुनिचन्द्रसूरि हरिभद्रसूरि मानदेवसूरि सिद्धसूरि महेन्द्रसूरि देवभद्रसूरि
देवानन्दसूरि नेमिचन्द्रसूरि यशोभद्रसूरि देवप्रभसूरि
नरचन्द्रसूरि
: ५९
विबुधचन्द्रसूरि
माणिक्यचन्द्रसूरि नरेन्द्रप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि प्रभानन्दसूरि पद्मद्रेवसूरि
ग्रन्थप्रशस्तियों से जहाँ श्रीचन्द्रसूरि के केवल दो शिष्यों मुनिचन्द्रसूरि और देवभद्रसूरि के बारे में ही जानकारी प्राप्त हो पाती है, वहीं इस गुर्वावली से ज्ञात होता है कि उनके अतिरिक्त श्रीचन्द्रसूरि के हरिभद्रसूरि, सिद्धसूरि, मानदेवसूरि आदि शिष्य भी थे। यही बात मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि के बारे में भी कही जा सकती है। इसी प्रकार इस गुर्वावली में उल्लिखित नरचन्द्रसूरि के सभी शिष्यों के नाम साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात हो जाते हैं। वस्तुत: इस गच्छ के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से यह गुर्वावली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
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जैसा कि पीछे हम देख चुके हैं इस गच्छ से सम्बद्ध १५वीं - १६वीं शती की जिन प्रतिमाओं की संख्या पूर्व की शताब्दियों की अपेक्षा अधिक है। इन पर उत्कीर्ण लेखों से इस गच्छ के विभिन्न मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं, तथापि उनमें से कुछ के पूर्वापर सम्बन्ध ही निश्चित हो पाते हैं। इनका विवरण इस प्रकार है :
१. मतिसागरसूरि ( वि० सं० १४५८ - १४७९ )
२. मतिसागरसूरि के पट्टधर विद्यासागरसूरि (वि० सं० १४७६ - १४८८ )
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३ प्रतिमालेख ७ प्रतिमालेख
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