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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६
__ शृंगार रस हो या वीर, साहित्यकारों ने अंतिम चरण वैराग्य में ही मोड़ा है। अधिकांश पात्र जीवन के उपभोगों को भोग कर अन्त में संसार से विरक्त हो जैनधर्म में दीक्षित हो मुनि जीवन बिताते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार श्रृंगार और वीर रस का शान्तरस में ही पर्यवसान दिखाई देता है। स्थान-स्थान पर मुनियों द्वारा उपदेश दिलवाकर जैनदर्शन के कर्म सिद्धान्त को उभारा गया है। जैन महापुरुषों के जीवन चरित्रों में शान्तरस का बड़ा सुष्ठ परिपाक हुआ है। अनेक ऐसे पद्य हैं जिनमें मानव जीवन के निर्माण में सहायक तथा जन जीवन को प्रेरणा प्रदान करने वाले सुन्दर उपदेश निबद्ध हैं।
घटनाओं का तारतम्य जहाँ हर्ष, करुणा, आश्चर्य, भय, हास्यादि समाविष्ट है वहाँ उत्सुकता और आश्चर्य को भी उत्तेजित करता है। कौतुहल की योजना करके कथासूत्र को आगे बढ़ाया है। भारण्ड पक्षी जब चारुदत्त को ऊपर से बहुत बड़े ह्रद में गिरा देता है, जरासंध के रक्षक पुरुष वसुदेव को चमड़े की भोथड़ी में बन्द करके पर्वत से गिरा देते हैं, स्वर्णसिद्धि करने वाला परिव्राजक चारुदत्त को अंधेरे कुँए में छोड़ कर चला आता है तो पाउक सोचने लग जाता है कि अब क्या होगा ? नायक-नायिका का अकस्मात् अपहरण हो जाना, विद्याधरों द्वारा वसुदेव को साँकलों में बाँध कर शंकुका देवी के पास बलि के लिये ले जाना, वसुदेव का किसी स्त्री के साथ मद्य पीते देखकर रानी का क्रोधित हो जाना, राजा का वसुदेव को मृत्युदंड दे देना, हाथी के मुख से कन्या का निकलना, नदी के भँवर में डूबती हुई कन्या के साथ वसुदेव का भी फंस जाना, निर्दोष ऋषिदत्ता का झूठे अपराध में फँस जाना, मृत्यु दंड प्राप्त ऋषिदत्ता को वधिकों द्वारा नगर में घुमाते हुए ले जाना आदि अनेक ऐसे प्रसंग कौतुहल को उत्पन्न करते हैं। पर उत्सुकता और कौतुहल को कम करने वाले भी कई प्रसंग हैं, यथा कौन स्त्री किसको वरण करेगी, यह पहले से ही निश्चित है जिसकी सूचना ज्योतिषी या चारण मुनि पहले ही दे देते हैं जिसके लिये उसी व्यक्ति को ढूंढने का प्रयत्न भी किया जाता है जो नियतिवाद का पोषण करता है। भवितव्यता के आगे मानव घुटने टेक देता है। उसके अपने परिश्रम, इच्छा-अनिच्छा का कोई मूल्य ही नहीं रहता। कहानी की उत्सुकता और कौतुहल भी कुछ सीमा तक समाप्त हो जाता है। विद्याधर द्वारा अपनी विद्याओं का समय-समय पर प्रयोग करके स्वाभाविकता का पुट देने का प्रयास किया है, मौत के मुँह में पहुँचे हुए वसुदेव को बचाने के लिये प्रभावती का धरण का रूप धर के मूर्ति में से निकालना और वसुदेव को लेकर उड़ जाना, उसी प्रकार अनिलयशा का देवी शंकुका की मूर्ति से निकल कर वसुदेव को लेकर सिद्धायतन कूट पर चले जाना, जगह-जगह पर विद्याधरों द्वारा रूप परिवर्तन कर लेना, मनुष्य के हाथ पैर काट कर उसको मृतक दिखा देना, किसी दूसरे व्यक्ति का रूप बना लेना आदि कई चमत्कार के प्रसगों ने कथाओं में अलौकिक तत्त्व की वृद्धि की है। पात्र चित्रण
आचार्य संघदासगणि ने मानव स्वभाव का विविध और विस्तृत विश्लेषण किया
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