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श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९६
मेघधारा से अभिसिक्त धरती की भाँति विमलसेना प्रथम समागम के बाद रति रसायण जनित कुशल धम्मिल के हृदय में समा गई। प्रेयसी को देखते ही नये वर्षाकाल में खिले कदम्बवृक्ष के समान अगड़दत्त के रोमांच से रोयें खड़े हो गये, कामशर से सन्तप्त हृदय से उसका आलिंगन किया। अनंगशर के ताप से शोषित शरीर वाली वह प्रिय को पाकर उसके अंगों में उसी प्रकार समा गयी जैसे सूर्य के ताप से तप्त व्यक्ति तालाब को पाकर उसके जल में समा जाता है।
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बुद्धिसेन शाम्बकुमार के भुक्तावशिष्ट फूल, इत्र, वस्त्र और ताम्बूल सुहिरण्या के पास ले गया। सुहिरण्या की माँ की आज्ञा से दोनों का मिलन हुआ। पंचलक्षण रूप, रस, गंध, स्पर्श, स्वर से विषयसुख में मुग्ध हो गए। गणिका के गर्भगृह में बिछावन पर बुद्धिसेन बैठ गया। उसके पैरों का संवाहन करते हुए दासी अपने स्तनों से उसके वक्षस्थल की संवाहना करने लगी। हाथ की मालिश से बढ़कर पयोधर के स्पर्श से उत्तेजित होकर हस्तिनी और वनगज की भाँति दोनों सुरत-क्रीड़ा में रत हो गये।" वासगृह में वेगवती में वसुदेव को विविध प्रकार के मिष्ठान्नों के साथ मद्य से पूर्ण मणिपात्र दिया। मद्य के नशे में वसुदेव ने अपनी प्रिया को विछावन में डाल दिया। उसे ऐसा लगा जैसे प्रिया से प्रथम समागम हो रहा है। रति से परिश्रान्त उसको रात बीतने का पता नहीं चला। मध्यम खंड में विमान की यात्रा करते हुए प्रभावती और वसुदेव कौमुदी उत्सव का रसास्वादन करते हैं। कहीं ग्वाले रास नृत्य कर रहे थे, कहीं गोपाल दम्पति रतिक्रीड़ा के लिए घने वन्य प्रदेशों में जा रहे थे, कहीं कदम्ब बृक्ष से बने हल के साथ फूलों से सुसज्जित कृषक प्रिया के साथ रमण कर रहा था, कहीं प्रणय क्रीड़ा में संलग्न प्रेमी प्रेयसी के पाँव छू रहा था, कहीं कोई स्त्री कामदेव की पूजा कर रही थी, कहीं कन्या का हरण करते हुए पुलोमी का नाटक मंचित किया जा रहा था। फूलों से लदा शतपर्ण वृक्ष उसके पास पड़ा शिलापट्ट प्रणयक्रीड़ा के लिये आमंत्रण दे रहा था। वसुदेव ने सुरुचिपूर्ण सजे सोमश्री के वासगृह में मद्यपान करके, चिर विरह से खेदित प्रिया के साथ आलिङ्गन, चुंबन आदि विविध क्रियाओं से रतिसुख का रसास्वादन किया।
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श्रृंगार के संयोग और विप्रलम्भ दोनों रूपों का सजीव अंकन हुआ है। विरही और विरहणियों के शब्द मार्मिक हैं, उनके हृदय की पीड़ा के द्योतक हैं, हृदय को स्पर्श करने वाली करुण वेदना पुकार हैं, विरही के प्रति सहानुभूति जागृत करने वाले हैं। पद्मावती का अपहरण हो जाने पर वसुदेव का विलाप बड़ा हृदय विदारक है। वह अपनी सुध-बुध खोकर प्रलाप करने लगता है। प्रिया के बारे में पूछ रहा है, 'हे चक्रवाक, तुमने मेरी सहचरी को देखा है। हे हंस, तुम्हारी गति का अनुकरण करने वाली मेरी प्रिया कहाँ गयी, हे मृग, तुम्हारे जैसी आँखों वाली मेरी प्रिया की गति क्या हुई। वह पेड़ों और पत्थरों में भी प्रिया का अस्तित्व मानता हुआ उन पर चढ़ जाता है, उन्हें निहारता है, वस्तुस्थिति को समझ जाने पर नीचे उतर आता है।" सोमश्री के दिखाई न देने पर वसुदेव की आँखें आसुओं से अवरुद्ध हो गईं, उसे क्रीड़ा के निमित्त गई हुई मानकर वह कभी लतागृह,
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