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________________ २४ श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९६ : हरिण के समान जाघें थीं, मृदुल ताँबे की तरह पैरों के नाखून थे। वाणी सजल मेघ की भाँति गम्भीर थी।“ वज्रसंघ के रूप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह अतिशय सुन्दर थे, मुख शरत्कालीन चन्द्रमा के समान सौम्य था, तरुण सूर्य की रश्मियों से प्रस्फुटित पुण्डरीक के समान नेत्र थे, गरुड़ की भाँति लम्बी और ऊँची नाक थी । कुन्दकली माला के समान स्वच्छ और स्निग्ध दंतपंक्ति थी, वृषभ की भाँति कंधे थे, नगर के कपाट के समान विशाल छाती थी, सिंह और घोड़े के समान कटिभाग गोल था, दोनों जाँघें हाथी की सूँड़ के समान थीं। २९ नारी सौन्दर्य की तुलना करते हुए वे कहते हैं पद्मावती के मुख की छवि कमल के समान थी, शरीर की कान्ति कदली और लवंगलता जैसी थी, हाथ नये कोमल पत्ते जैसे थे। जाम्बवती के मुख की शोभा चन्द्रमा और कमल से भी बढ़कर थी, आँखें भौरों से युक्त नीलकमल के समान थीं, पीनोन्नत सघन स्तन तालफल समान थे, पल्लवयुक्त लताओं के समान बाहें थीं, जंघाओं का विस्तार भगीरथी के पुल के समान था, दोनों पैर कूर्म की आकृति जैसे थे, वाणी के माधुर्य से वसन्त की कोकिला को परास्त करती थी, सुकुमारता में शिरीष पुष्प के गुच्छे के समान थी । " गान्धर्वदत्ता के शरीर की कान्ति तरुण रविमण्डल के समान थी, पयोधर ताल फल के समान थे, मांसल नितम्ब कमलिनी के समान पृथुल थे, परिपुष्ट जघन प्रदेश कमलदल की भाँति सुकुमार और चिकना था और हाथ सरस कमल की भाँति कोमल और प्रशस्त थे, कलहंस जैसी ललित गति से चलती थी। प्रभावती के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उसका सौन्दर्य विद्युत सा था, उसके लाल होंठ बिम्ब- फल की तरह थे, कौमुदी के पूर्ण चन्द्र की भाँति उसका मुख था, उसकी भौहें कामदेव के धनुष की भाँति थीं, उसकी सुन्दरता को देखकर वसुदेव को मेनका, रम्भा, उर्वशी और चित्रा का भ्रम हो गया। वह मद्यपेय की तरह थी जिसे लेते ही फिर प्यास अनुभव होने लगती थी। सरोवर का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह साधु के शील की तरह निर्मल, माँ के हृदय की तरह भय रहित, गुरुजनों के उपदेश की तरह शीतल, गंधी की दुकान की तरह सुगन्धित और जिनमत की तरह गम्भीर था। ३४ पानी के प्रवाह से परिभुक्त अत्यन्त सूक्ष्म बालू का प्रदेश परिधान के भीतर से निकला हुआ जावकरस की भाँति पाण्डरवर्ण की युवती के पयोधर सा लग रहा था। प्रभावती के हृदय की तुलना नदी के स्वच्छ जल से, नितम्बों की नदी के तट से, नाभि की नदी के भँवर से, हाथों की तट पर उगे पादपों से की गई है। " झूला झूलती हुई कन्या का वर्णन करते हुए कहा गया है कि स्वर्णस्तम्भों पर वने झूले में झूलती हुई कन्या अँधेरे को चीर कर निकलती हुई सूर्य किरणों की तरह, बादलों में चमकती हुई बिजली की तरह, समुद्र में पड़ती हुई चंद्रछाया की तरह, आकाश से टूटे तारे की तरह, जलती हुई अग्नि की लपटों की तरह दिखाई देती थी। हाथी की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि हाथी की सूँड़ लम्बी और सुदर्शन थी, उसका विशिष्ट पृष्ठभाग धनुषाकार था, उज्ज्वल नखों से मंडित उसके पैर कछुए के समान थे, वराह की भाँति ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525026
Book TitleSramana 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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