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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६ :
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के कारण हाथी का शरीर सिकुड़ गया इसीलिए कौवे शरीर से बाहर नहीं आ पाये। वर्षाकाल में बाढ़ आ जाने से हाथी का शरीर समुद्र में पहुँच गया, वहाँ मगर और मछलियाँ उसे खाने लगे। कौवों को बाहर आने का रास्ता तो मिल गया लेकिन कहीं भी किनारा न मिलने के कारण वे मर गये। कौवे संसारी जीव का प्रतीक हैं, हस्ती के कलेवर में प्रवेश करना मनुष्य जीवन के कलेवर का, मांस विषयभोगों का, मार्ग अवरोध सांसारिक प्रतिबंध का, जल प्रवाह का, विक्षोभ मरण काल का, कलेवर से निकलना दूसरे भव में सक्रान्त होने का प्रतीक है। २२ एक भैंसे का उदाहरण भी मिलता है जिसमें बताया गया कि जंगल के सरोवर में जंगल के जानवर पानी पीने आते थे। एक भैंसा जलाशय में आकर अवगाहन करता, सींग मार-मार कर सारा पानी गंदा कर देता जिससे पानी पीने के लिये बेकार हो जाता। यहाँ जंगल संसार का प्रतीक है, आचार्य सरोवर के पानी का, धर्म सुनने की अभिलाषा वाले प्राणी जानवरों का, पानी को गंदला करने वाला भैंसा मिथ्यावादी का प्रतीक है।२३ आचार्य ने लौकिक आख्यानों को भी अपनी रचना में स्थान दिया है जिनमें गाड़ी, तीतर और ठग, बालक के लिये दो सौतों का झगड़ना, कबूतर और बहेलिये की कथा आदि का उल्लेख हुआ है। आचार्य ने पौराणिक कथाओं, लौकिक कथाओं, अवान्तर कथाओं, दृष्टान्तों के साथ जैन शलाका पुरुषों के चरित्रों का भी वर्णन किया है। ऋषभदेव, शान्तिनाथ, कुंथुस्वामी और अरनाथ के चरित्रों के साथ उनके पूर्वजन्मों का भी उल्लेख किया है। इसमें चरित, कथा और पुराण तीनों तत्त्वों का सम्मिश्रण मिलता है। मध्यम खंड में प्रधान वर्ण्यविषय यौवन और श्रृंगार हैं। वसुदेव के उदात्त चरित में धर्मसेन. गणि ने इनका समवेश किया है। जहाँ तक कथानक का सम्बन्ध है वह बहुत परिमित है। इस प्रकार कुछ कथानक रूढ़ियों ने इसके कलेवर को अवश्य पुष्ट किया है।
वसुदेवहिंडी की भाषा प्रांजल और व्यवस्थित है। द्वितीय यमखंड की भाषा लम्बे समासों और उपमाओं के कारुण दुरूह हो गई है और कथा प्रवाह में भी शिथिलता आ गई है। आचार्य संघदासगणि ने अनेक सुभाषितों, लोकोक्तियों और वाग्धाराओं का प्रयोग करके अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है, यथा -
१. सैकड़ों लोकों में कोई एक ही शूर होता है, हजारों में एक पंडित, वक्ता लाखों में एक होता है, दाता तो बहुत कम होते हैं, नहीं भी होते। ( पृ० ३१२ ) ।
२. इन्द्रियों को जीतने में समर्थ ही शूर होता है, धर्मान्तरण करने वाला ही पंडित होता है, सत्यव्रती ही वक्ता होता है और जीवों की भलाई में लगा रहने वाला दाता। .( पृ० ३१३ )
३. जो शत्रु को मार डालता है वह उत्तम पुरुष है, जो शत्रु के साथ मरता है वह मध्यम है, जो शत्रु से मारा जाता है वह अधम। ( पृ० ३८१ )
४. विभिन्न कर्मों में तप ही ऐसा है जो बहुत लाभकारी है जिसके करने में लज्जा नहीं होती, जो शरीर के नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता। ( पृ० ३४८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only
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