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________________ १२० : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९६ गणेश, गौरी, भवानी, राम, शिव और हरि की पौराणिक ढंग से तथा जैनों में - उनकी मान्यतानुसार संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी भाषाओं में विविध प्रकार से भगवान् जिनेन्द्र की स्तुति की गयी है। परमभक्त आचार्य मानतुंग द्वारा रचित भक्तामर स्तोत्र एक ऐसी उत्कृष्ट रचना है जिसका समादर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में तो समान रूप से है ही, इसके साथही साथ जैनेतर भक्त समाज भी मानतुंगाचार्य की इस रचना के आगे विनत है। इस स्तोत्र की महत्ता इतनी अधिक है कि इसमें मात्र ४८ ही पद्य हैं परन्तु वे ४८ पद्य,पद्य न कहाकर काव्य कहे जाते हैं। उक्त ( भक्तामर ) स्तोत्र पर उनेक अनुवाद, टीकाएँ व्याखाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं, किन्तु प्रस्तुत ( भक्तामर-संदोह ) कृति की भाँति तुलनात्मक अध्ययन इससे पूर्व प्रकाशित नहीं हुआ था। इस स्तोत्र की तुलना गजेन्द्र मोक्ष के साथ करके विद्वान लेखक ने एक सराहनीय कार्य किया है। इसमें आलंकारिक दृष्टि से लेखक ने जो मीमांसा की है वह पाठकों के लिए एक आकर्षण का विषय बनेगी। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक एवं मुद्रणकार्य निर्दोष है। उक्त सभी बातो को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि पुस्तक संग्रहणीय है। - डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी पुस्तक : बहुरला वसुन्धरा, लेखक : अंचलगच्छीय ५० गणिवर्य श्री महोदय सागर जी म० सा०, प्रकाशक : श्री कस्तूर प्रकाशन ट्रस्ट, १०२ लक्ष्मी अपार्टमेन्ट २०६, डॉ० एनी बेसन्ट रोड, वरली नाका, मुंबई - १८, पृष्ठ : ७२, मूल्य : १५ रुपये, आकार : डिमाई, संस्करण : प्रथम।। अचलगच्छाधिपति प० पू० आचार्य भगवंत श्री गुणसागरसूरीश्वर जी म० सा० के शिष्य आगमाभ्यासी पू० गणिवर्य श्री महोदयसागर जी म० सा० द्वारा संपादित 'बहुरत्ना वसुन्धरा' नामक पुस्तक में ऐसे जैनेतर अनुपम रत्नों के अनुमोदनीय प्रेरक दृष्टान्तों का संग्रह है जो जन्म से अजैन हैं किन्तु अपने आचरणों से विशिष्ट जैन की कोटि में आते हैं। वि० सं० २०४८-२०४९ में जब महाराज श्री गुजरात प्रान्त में विहार कर रहे थे उस दौरान उनके सम्पर्क में अनेक ऐसे जैनेतर व्यक्ति ( जो विभिन्न जातियों के थे ) आए, जो कि जन्म से अजैन थे किन्तु आचरण में जैनों से सवाए थे। उन व्यक्तियों के जीवन प्रसंग एवं उनसे हुए ऐसे बहत्तर संवादों को इसमें संकलित किया गया है। 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' का अनुसरण अन्य मानवों को भी करना चाहिए, इस विचार से उन संवादों को संकलित करके उसे पुस्तक का स्वरूप प्रदान कर मानवोपयोगी बनाया गया है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक है एवं मुद्रण कार्य निर्दोष है। - डॉ० जयकृष्ण त्रिपाठी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525026
Book TitleSramana 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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