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________________ श्रमण वसुदेवहिंडी का समीक्षात्मक अध्ययन डॉ० कमल जैन वसुदेवहिंडी आचार्य संघदासगणि और धर्मसेनगणि दो आचार्यों के संयुक्त प्रयास से बनाये गये उपवन के रूप में हमारे समक्ष आती है जो विविध कथानकों, दृष्टान्तों के पाद-पादपों से युक्त, जीवन के उतार-चढ़ाव, वसन्त, पतझड़, मानस की प्रवृत्तियों के पुष्प-काँटों, सौन्दर्य-माधुर्य, विविध राग-रंग एवं रसों से युक्त है। वसुदेवहिंडी में केवल वसुदेव के कलात्मक भ्रमण वृत्तान्त ही नहीं किन्तु ऐसी अनेक कथाएँ हैं जो मनोरंजक और शिक्षावर्धक होने के साथ लोकसंस्कृति के अनेक पक्षों का भी दिग्दर्शन कराती है। कथानक संयोजना में कथाकार ने पुराणोक्त महापुरुषों के जीवनचरित, मुनिधर्म, तत्त्व-उपदेश, अलौकिक तत्त्वों का निरूपण, अवान्तर कथाओं की संयोजना करके अपनी सृजनशक्ति का परिचय दिया है। परम्परागत मर्यादाओं और व्यवस्थाओं का अतिक्रमण करते हुए रचनाकार ने इसे नूतन रूप प्रदान किया तथा सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में आदर्श के नाम पर समझौता नहीं किया। उन्होंने उदार मानवीय साहसपूर्ण दृष्टिकोण के अनुरूप इसे नूतन प्रवृत्तियों और मौलिक भावनाओं से अनुप्राणित किया है। यद्यपि इस कथा ग्रंथ में शृंगाररस का बाहुल्य है, पर आचार्यों ने सृजनात्मक कल्पनाशक्ति से लौकिक कथा के आवरण में अध्यात्मिकता का पुट देकर इसे रोचक बनाया है। एक ओर वैराग्य के माध्यम से अध्यात्म की पराकाष्ठा है तो दूसरी ओर श्रृंगारिकता की भी चरम सीमा है। कथानायक १०० शादियाँ करके सांसारिक सुख भोगों में ही व्यस्त रहता है। भारतीय साहित्य में ऐसे बहुत कम ग्रन्थ हैं जिसमें शृंगारिकता और सांसारिक विषयभोगों को इतनी प्रमुखता दी गई हो। मानव जीवन के इस भोगमय सरस जीवन को प्रायः परोक्ष में ही रखा जाता है। 2. जैन विद्वानों ने युग की माँग को देखा, उनके शुष्क उपदेशों का प्रभावोत्पादक शैली के बिना कोई मूल्य नहीं था। दूसरी तरफ जैन परम्परा में श्रृंगार कथा को सुनने सुनाने का निषेध भी था पर श्रावक वर्ग को आध्यात्मिकता की ओर आकर्षित करने के लिए आचार्यों ने अपनी रचनाओं में उपदेशात्मक शैली के साथ-साथ शृंगारिक शैली का भी सहारा लिया। पौराणिक कथाओं के समाज में अत्यन्त प्रिय होने के कारण भाव बोध कराने में बड़ी सुगमता हो जाती है। अतः आचार्यों ने विभिन्न कथाओं को ब्राह्मण परम्पराओं से ग्रहण कर उसे जैनधर्म के अनुरूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525026
Book TitleSramana 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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