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२ : ब्रमण/अक्टूबर दिसम्बर/१९९५
अन्य दो टॉल्सटॉय और रस्किन हैं। स्पष्ट ही एक विचारक के रूप में गांधीजी ने राजचन्द्र को टॉल्सटॉय और रस्किन जैसे दार्शनिकों की श्रेणी में रखा है। राजचन्द्र से गांधीजी का परिचय १८९१ में हुआ था। इंगलैण्ड से लौटने पर गांधीजी उनके निकटतम सम्पर्क में आए
और उनके गम्भीर शास्त्र-ज्ञान, निर्मलचरित्र और आत्म-दर्शन की उत्कण्ठा से बहुत प्रभावित हुए। राजचन्द्र ने बहुत अवसरों पर धार्मिक और नैतिक उलझनों में गांधीजी का पथ-प्रदर्शन किया। गांधीजी उन्हें आलोचना से रायचंद भाई' या 'कवि' कहते थे। गांधीजी ने अपनी
आत्मकथा में पूरा एक अध्याय राजचन्द्र के बारे में लिखा है जिसमें स्वयं पर उनके प्रभाव को बिना किसी हिचकिचाहट के स्वीकार किया है। वे उन्हें एक ऐसा असाधारण व्यक्ति मानते थे जो यद्यपि न तो पूरी तरह से निरासक्त हो सका और न ही मोक्ष प्राप्त कर सका किन्तु जिसमें एक तीर्थङ्कर की सी महानता थी और जो आम आदमी के स्तर से काफी ऊपर था।
जैन धर्म एक निरीश्वरवादी धर्म है। इसमें एक ऐसे ईश्वर की अवधारणा. जिसमें वह सृष्टि का जन्मदाता, पालनकर्ता और विनाशकर्ता के रूप में स्वीकार किया गया है, मान्य नहीं है। ईश्वर के स्थानापन्न यहाँ तीर्थङ्कर हैं जिनकी उपासना की जाती है। किन्तु राजचन्द्र और गांधी, दोनों में ही ईश्वर के लिए एक जीवित आस्था सदैव बनी रही। दोनों ने ही ईश्वर को जगत् का अधिष्ठान माना। फिर क्या जैन तीर्थङ्कर जगत् के अधिष्ठान के प्रति अज्ञानी थे? या वस्तुत: ऐसा कोई अधिष्ठान है ही नहीं? या इसे बताया नहीं गया? या लोग इसे समझ नहीं पाए? ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जो जैन धर्मावलम्बी राजचन्द्र को विचलित करते थे। किन्तु वे स्वयं ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्थावान थे – “वह जो है, और जिससे सष्टि जन्मी है और जिसमें सभी वस्तुओं का होना' निहित है और जिसमें उनका अन्तत: विलय हो जाता है" ऐसा अधिष्ठान राजचन्द्र के अनुसार “ईश्वर है, स्वयं हरि है और उसी की उपस्थिति की चाह हम सब अपने हृदय में बार-बार करते हैं।"
गांधीजी का विश्वास था कि सत्य ही ईश्वर है। राजचन्द्र बेशक इन शब्दों में ऐसा नहीं कहते थे। वे इस कथन का अर्थ यह लगाते थे कि धर्म, नीति, राजनीति और ( मानवी ) व्यवहार, सभी कुछ सत्य से प्रेरित होता है। यदि ऐसा न हो तो संसार कितना वीभत्स और डरावना लगेगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। अत: यह कहना कि सत्य संसार का आधार है, यह न तो अतिशयोक्ति है और न ही यह कोई अविश्वसनीय बात है। किन्तु राजचन्द्र, कुल मिलाकर, सत्याधारित जगत् की बजाय ईश्वरावलम्बित जगत् को वरीयता प्रदान करते हैं। भले ही ये दोनों दृष्टिकोण समानार्थी ही क्यों न हों।
राजचन्द्र निस्सन्देह एक जैन विचारक थे किन्तु अन्य धर्मों के लिये उनमें निरादर का भाव नहीं था। वे इसके भी पूरी तरह विरुद्ध थे कि कोई, किसी भी कारण, अपना धर्म परिवर्तन करे। अपने धर्म पर अडिग रहते हुए भी सभी धर्मों की अच्छाई उन्होंने ग्रहण की। कुछ ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आकर गांधीजी एक समय में जब हिन्दू धर्म के प्रति
शंकालु होने लगे और मिशनरियों ने उन्हें धर्म-परिवर्तन के लिए उकसाया तो राजचन्द्र से गांधी Jain Education International For Private & Personal Use Only
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