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३७ : ब्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९५
भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। उन्होनें स्त्रियों में एक नया आत्म-विश्वास पैदा किया। गांधीजी ने नारी के लिये कहा “स्त्री साक्षात् त्याग की मूर्ति है। जब वह किसी काम में लग जाती है तो वह पर्वतों को भी हिला देती है।"१२ बापू के प्रत्येक कार्य में आगे बढ़कर भाग लेने वाली कस्तूरबा, नेहरू जी की पत्नी कमला, भारत कोकिला सरोजिनी नायडू'३ इन्दिरा गांधी, ब्रिटेन की मार्गेट थैचर, फिलिपिन्स की एक्वीना, श्रीलंका की भंडारनायके आदि के नाम चिरस्मरणीय रहेंगे।
जैन दर्शन एक विश्व दर्शन है। यह प्राणिमात्र का हितैषी, परम कल्याणकारक है तथा विश्व कल्याण का उद्देश्य अपने आप में संजोये हुए है। जिस दर्शन में तिर्यक् एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक को कल्याण का स्थान कहा है वहाँ स्त्री का स्थान क्या हो सकता है, अकथनीय है ?
जैसे सूर्य के बिना प्रकाश का अभाव है, चन्द्र के बिना चाँदनी का अभाव है, शील के बिना सतीत्व का अभाव है,
वैसे ही नारी बिना तीर्थङ्कर का अभाव है। स्याद्वाद ही जिसका मूल सिद्धान्त है, ऐसे जैन दर्शन में नारी यदि बीज है तो तीर्थङ्कर उसका फल है। नारी यदि जड़ है तो मोक्ष उसका फल है, अर्थात मोक्ष-प्राप्ति के लिये किये गये सभी धार्मिक या मांगलिक कार्य इसके अभाव में अधूरे हैं। ज्ञान, कला, साहित्य, वैराग्य, दान पूजादिक समस्त मांगलिक कार्यों में इसका अपना विशिष्ट स्थान है। जैन धर्म की प्रमुख क्रिया पंचकल्याणक में भी स्त्री का ही स्थान आगे दिखलाया है, जैसे -
सर्वप्रथम धर्मशुद्धि की क्रिया होती है। भूमिशुद्धि हेतु मंगल कलश नारी ले जाती है और शुद्ध पानी से भूमि की शुद्धि करती है। द्वितीय क्रिया मुण्डारोहण की होती है। यहाँ भी मंगलकलश की स्थापना नारी के द्वारा ही की जाती है। तीसरी क्रिया अंकुश-रोपण भी नारी ही करती है। आगे की क्रिया गर्भकल्याणक है। गर्भकल्याणक क्रिया की प्रमुख नायिका नारी होती है, क्योंकि तीर्थङ्कर का गर्भस्थान भी नारी है। गर्भावस्था में माता की सेवा करने वाली भी नारी होती है। जन्मते ही प्रभु के सर्वप्रथम दर्शन की अधिकारी सोधर्म इन्द्र की इन्द्राणी है। कुमार तीर्थङ्कर जब युवावस्था को प्राप्त होते हैं तो विवाह के समय समस्त मांगलिक कार्य -- कलश लेना, गीत गाना आदि भी नारी करती है। राजकुमार को शासन करते हुए बहुत समय बीतने पर स्वर्ग की देवी संसार की नश्वरता का ऐसा चित्र उपस्थित करती है कि उन्हें उसी समय वैराग्य हो जाता है और वे मुनि बन जाते हैं। मुनि बनकर आहार की चर्या के लिये निकलते हैं। उनकी उस चर्या की विधि को करने में मुख्य हाथ नारी का होता है। प्रभु के समवसरण में भी पुरुषों से तिगुनी नारियों की संख्या रहती थी। जैन दर्शन कहता है – नारी कुल की एक ऐसी चाँदनी है जो अपनी छटा से चारों ओर ज्योति
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