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श्रमण
समकालीन जैन समाज में नारी
डॉ० प्रतिभा जैन*
भारतीय संस्कृति के निर्माण में नारी समाज ने प्रारम्भ से ही महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। नारी के कारण समय-समय पर संस्कृति का रूप भी परिवर्तित हुआ है। उसे कभी पुरुष के समान माना गया है तो कभी भोग-विलास की वस्तु मात्र ।
भारतीय संस्कृति मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त की जाती है – वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति । सहस्त्रों वर्ष पूर्व जब अधिक भू-भाग में अज्ञान अन्धकार व्याप्त था, उस समय भारत में पुरुष ही नहीं, महिलाएँ भी वेद मन्त्रों की रचना में संलग्न थीं। भगवान बुद्ध ने भी नारी को पुरुषों के समान धर्म पालने का अधिकारी माना था किन्तु, साथ में वे यह चाहते थे कि स्त्रियाँ अपने इस अधिकार का प्रयोग घर में रहकर उपासिका के रूप में करें । कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्ध, सैद्धान्तिक दृष्टि से स्त्री एवं पुरुष में धर्माचरण करने की समान क्षमता स्वीकार करते थे किन्तु, व्यावहारिक दृष्टि से वे स्त्रियों को संघ में प्रवेश देने के पक्ष में नहीं थे। इससे भिन्न, जैन आगमों से यह ज्ञात होता है कि महावीर ने नारी के लिये भी साधना का मार्ग खोला। अपने चतुर्विध संघ की संरचना में उन्होंने मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को यथायोग्य स्थान दिया। उस समय नारियों को न केवल गार्हस्थ्य अवस्था में पुरुषों के समान धर्माचरण करने का अधिकार था अपितु भिक्षुणी बनने में उन पर संघ की ओर से किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। इतना ही नहीं अपितु श्वेताम्बर जैन मान्यता के अनुसार स्त्री भी तीर्थङ्कर बन सकती थी । मल्ली ने स्त्री होते हुए भी तीर्थङ्कर पदवी प्राप्त की थी। जैन युग में स्त्रियों को सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों ही दृष्टियों से धार्मिक क्षेत्र में पुरुषों के समान माना जाता था ।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार नारी बिना यह सम्पूर्ण विश्व सार शून्य है । वस्तुत: कन्या का अर्थ ही होता है - जिसकी सब कामना करें। जैनागमों में भी नारी की महत्ता बताते हुए कहा है कि नारी के बिना सृष्टि की रचना, समाज का संगठन, गार्हस्थ्य कार्य-कलाप एवं गृहस्थ जीवन अधूरे हैं। विश्व की समस्त विभूतियों में अर्धांश नारी का है। नारी को श्रेष्ठतर अर्धांगी कहा है। नर श्रम है और नारी उसका विश्राम। नर नाव है, नारी उसकी पतवार । नर अंश है, नारी उसकी पूरक । नर पुष्प है, नारी उसका सौरभ । नर की शक्ति भी नारी है। नारी की विवेक व कार्यदक्षता के लिये स्मृतियों में लिखा है कि नारियों में चौगुनी बुद्धि होती है तथा कार्यदक्षता छः गुनी होती है।
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