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________________ श्रमण 'सन्देशरासक' में पर्यावरण के तत्त्व डॉ० श्रीरजंन सूरिदेव * रमणीय अपभ्रंश काव्यों की परम्परा में कवि अब्दुल रहमान ( अद्दहमाण ) कृत 'सन्देशरासक' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अब्दुल रहमान भाषा काव्य के सर्वप्रथम मुसलमान लेखक हैं। वह जितने ही विनयी कवि थे, उतने ही मानी भी थे। उनमें भारतीय साहित्य का संस्कार पूरी तरह विद्यमान था । उन्होंने ईसा की ग्यारहवीं से तेरहवीं शती के बीच 'सन्देशरासक' की रचना की थी। जैसा नाम से स्पष्ट है, 'सन्देशरासक' शृङ्गारप्रधान रासक काव्यों में प्रतिनिधि काव्य-ग्रन्थ है । यह एक प्रकार का विलक्षण दूतकाव्य है । यद्यपि इसकी रचना का आधार - स्रोत महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध दूतकाव्य 'मेघदूत' है, तथापि ऋतु-वर्णन की दृष्टि से यह उनके ऋतुसंहार काव्य के अधिक निकट है। 'सन्देशरासक' काव्य का सम्पूर्ण कलेवर तीन प्रक्रमों में विभक्त है। प्रथम प्रक्रम में काव्य की प्रस्तावना है। वास्तविक कथा द्वितीय प्रक्रम से प्रारम्भ होती है। तृतीय प्रक्रम में, अज्ञातनामा विरहिणी नायिका अपने मालिक का पत्र ( लेख ) लेकर 'मूलस्थान' (मुलतान) से खम्भात ( गुजरात ) जाते हुए पथिक को आग्रहपूर्वक रोककर उससे अपने खम्भात - प्रवासी अनक्षर या अनाम पति के पास अपना विरह - सन्देश पहुँचाने का अनुरोध करती है। इसी क्रम में वह छहों ऋतुओं में होने वाली अपनी दारुण कामदशा का वर्णन करती है। षड्ऋतुचक्र का वर्णन पूरा हो जाने के बाद विरहिणी नायिका पथिक को आशीर्वचन के साथ विदा कर देती है । पथिक के जाते ही उस विरहिणी को दक्षिण दिशा से आता हुआ उसका पति दिखाई पड़ता है, जिससे वह हर्षित हो जाती है और इसी के साथ ही ग्रन्थ भी समाप्त हो जाता है। 'सन्देशरासक' पूर्णतया लौकिक काव्य है। इसमें उत्कृष्ट काव्य-कौशल और निश्छल लोकतत्त्वों का मणिकांचन संयोग हुआ है । फलतः, यह काव्य-कृति जहाँ अपने समय की भारतीय काव्य- गरिमा का परिचय देती है, वहीं लोकजीवन की सहज हृदयावर्जक झाँकियाँ भी प्रस्तुत करती है । विप्रलम्भ-शृङ्गार काव्य होने का कारण 'सन्देशरासक' में स्वभावतया विरह-वर्णन की प्रधानता है । विरह-वर्णन के क्रम में कवि ने रूप-वर्णन, प्रकृति-वर्णन और ऋतु वर्णन में परम्परित काव्य रूढ़ियों और उपमानों की रसात्मक अवतारणा की है। किन्तु द्वितीय प्रक्रम में, नगर - वर्णन के अन्तर्गत 'वनस्पतिनामानि' शीर्षक से कवि ने कुल मिलाकर एक सौ पाँच वनस्पतियों के नाम गिनायें हैं। यद्यपि गणना में कई वनस्पतियों के नाम दुबारा आ गये हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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