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१७ : श्रमण/अक्टूबसदिसम्बर/१९९५
नेमिचंद का पारस्परिक सम्बन्ध प्रकट करने वाला कोई भी पद गाथा में नहीं है। क्वचिद्वितीयादे: ( हे० प्रा० ३/१३४ ) के अनुसार षष्ठी को तृतीयार्थक समझ कर नेमिचंद' को 'लिहिया' क्रिया का कर्ता स्वीकार करने पर भी तस्स सीसस्स गणिनेमिचंदस्स लिहिया' इस प्रकार अन्वय होगा जिसमें अन्वयाभाव के कारण जसेण' शब्द का कोई उपयोग ही नहीं रह जायेगा। ‘पञ्चम्यास्तृतीया च' ( प्रा० व्या० ३/१३६ ) एवं हेतौ' ( अ० २/३/२३ ) के आधार पर ‘जसेण' की तृतीया को हेत्वर्थक मान कर उक्त बाधा को दूर करने का कष्टसाध्य प्रयत्न किया जा सकता है, परन्तु अनावश्यक एवं अतिरिक्त श्रम करने की आवश्यकता तब पड़ती जब स्पष्ट कर्तृत्वसूचक तृतीया 'जस' शब्द में विद्यमान न होती।
यश ( जस ) को शिष्य सिद्ध करने के लिये षष्ट्यन्त नेमिचन्दस्स' का अन्वय ‘सीसस्स' से करने पर उस ( जस ) की तृतीया विभक्ति आड़े आ जाती है और 'तस्स' शब्द के साकांक्ष रह जाने के कारण पूर्वार्ध का सम्पूर्ण वर्णन अर्थहीन हो जाता है। इस प्रकार उत्तरार्ध का अर्थ इतना उलझ गया है कि लेखक या रचयिता के सम्बन्ध में निर्धान्त मत व्यक्त करने की विकट समस्या खड़ी हो गई है।
पूर्वचर्चित विद्वान 'जस' शब्द की तृतीया विभक्ति की उपेक्षा करके नेमिचन्द्र को ही तरंगलोला का कर्ता मान बैठे हैं, परन्तु यह उनका कोरा भ्रम है। तृतीयान्त 'जसेण' पद को बीच से हटाये बिना नेमिचन्द्र को उक्त ग्रन्थ का रचयिता सिद्ध करना उपहासास्पद है। साथ ही 'जस' की तृतीया को पदच्युत करके षष्ठ्यन्त 'नेमिचंदस्स' में पुनः तृतीया का आक्षेप करते हैं। वे प्रत्यक्ष कामधेनु को छोड़ कर कल्पित गाय को दुहने का निरर्थक कष्ट उठाते हैं। यदि नेमिचन्द्र ने यश ( जस) के स्वाध्याय के लिये तरंगलोला की रचना की होती तो उक्त ( जस ) शब्द में नियमानुसार चतुर्थी विभक्ति रहती । प्राकृत व्याकरण में चतुर्थी के लिये तृतीया का विधान नहीं है। मूल गाथा में एक भी स्वाध्यायवाचक शब्द नहीं है। अत: यश न तो नेमिचन्द्र का शिष्य था और न उन्होंने उसके स्वाध्याय के लिये तरंगलोला की रचना की थी।
वस्तुत: उपर्युक्त गाथा की अस्पष्टार्थता का प्रमुख कारण वह अन्वयानुपपत्ति है जो तृतीयान्त कर्तृपद ‘जसेण' के रहने पर भी 'नेमिचंदस्स' की षष्ठी में तृतीयार्थ-कल्पना से उत्पन्न हुई है। प्रश्न यह है कि जब 'जस' शब्द में कर्तृत्व को स्पष्टरूप से प्रकट करने वाली तृतीया पहले से ही विद्यमान है तब उसके अतिरिक्त अन्य किसी कर्ता को ढूँढने के लिये 'नेमिचंद' की षष्ठी को तृतीयार्थक क्यों मानें ? 'नेमिचंद' की षष्ठी को चतुर्थ्यर्थक मान लेने में क्या आपत्ति है ? अन्वय की अनुपपत्ति को दूर करने का यही स्वाभाविक और सरलतम उपाय है, क्योंकि प्राकृत में चतुर्थी के स्थान पर प्रायः सर्वत्र षष्ठी का ही प्रयोग होता है - चतुर्थ्याः षष्ठी (प्रा० व्या० ३/१३१ )
'नेमिचन्दस्स' पद में विद्यमान षष्ठी को चतुर्थी के अर्थ में स्वीकार कर लेने पर गाथा की संस्कृतच्छाया यह होगी - Jain Education International
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