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१६ : श्रमण/अक्टूबर दिसम्बर/१९९५
विरइया' छपा है। सम्पादक ने ‘जसेण' के पश्चात् कोष्ठक में प्रश्नचिह्न लगा कर रचयिता के विषय में अनिश्चय प्रकट किया है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी से प्रकाशित 'जैन साहित्य का वृहद् इतिहास' शीर्षक ग्रन्थ के षष्ठ भाग में डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी उपर्युक्त दोनों रचनाओं के सम्बन्ध में यह लिखते हैं -
'तरंगवती तो अपने मूल रूप में हमें उपलब्ध नहीं है पर उसका संक्षिप्त रूप १६४२ प्राकृत गाथाओं में तरंगलोला नाम से मिलता है' ( पृ० ३३५ )। रचयिता और रचनाकाल
___“इस तरंगलोला के रचयिता वीरभद्र आचार्य के शिष्य नेमिचन्द्र गणि हैं जिन्होंने मूल तरंगवती कथा के लगभग १०० वर्ष पश्चात् यश नामक अपने शिष्य के स्वाध्याय के लिये इसे लिखा था।" ( पृ० ३३६ )
___स्पष्ट है, डॉ० कापड़िया और श्री कस्तूरविजय जी का तरंगलोला के रचनाकार के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत नहीं है। शेष जो विद्वान तरंगलोला को नेमिचन्द्र की रचना मानते हैं उनके उद्धरणों से प्राप्त सूचनाओं में निम्नलिखित तीन प्रमुख बिन्दु हैं -
१. तरंगवती कथा पूर्णत: अनुपलब्ध है। २. तरंगलोला, तरंगवती का संक्षिप्त सारांश है। ३. नेमिचन्द्र ने अपने शिष्य यश के स्वाध्याय के लिये तरंगलोला की रचना की 4
थी ।
अब हम इन बिन्दुओं की सत्यता का पृथक्-पृथक् परीक्षण करेगें।
प्रथम बिन्दु को हम आंशिक रूप में ही स्वीकार करते हैं क्योंकि तरंगवती का प्रचुर भाग नष्ट हो जाने के पश्चात् भी उसका कुछ भाग अब भी उपलब्ध है। आगे इस विषय का विस्तृत विवेचन करना है, अत: थोड़ी देर के लिये इसे यहीं छोड़ देते हैं। अभी सर्वप्रथम तरंगलोला के रचयिता से सम्बद्ध भयंकर एवं दुर्भेद्य भ्रान्तिपटल का निवारण कर देना अनिवार्य है। तरंगलोला की अन्तिम गाथा में लेखक का नाम इस प्रकार दिया गया है -
हाईयपुरीयगच्छे सूरी जो वीरभद्दनामे (मो ) ति।
तस्य सीसस्स लिहिया जसेणा गणिनेमिचंदस्स॥ १६४२ ।। - इस गाथा के अन्तिम पाद में एक मात्रा की कमी रह जाती थी, अत: रचयिता ने। 'जसेण' के णकार को दीर्घ कर दिया है।
उपर्युक्त प्राकृत गाथा का पूर्वार्ध नितान्त सरल एवं स्पष्ट है, परन्तु उत्तरार्ध में 'जस' शब्द की तृतीय विभक्ति और नेमिचंद की षष्ठी विभक्ति के कारण अर्थावगति में विकट अवरोध उत्पन्न हो गया है। यदि 'जस' को तृतीय के आधार पर (कर्तृकरणयोस्तृतीया अ० २/३/१८ ) 'लिहिया' क्रिया का कर्ता मानते हैं तो षष्ठ्यन्त 'सीसस्स गणिनेमिचंदस्स' (शिष्यस्य गणिनेमिचन्द्रस्य ) यह अंश निरर्थक सा प्रतीत होने लगता है क्योंकि जस' और
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