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________________ ९ : श्रमण/अक्टूबर दिसम्बर/१९९५ यूनानी साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि महावीर का निर्वाण ४८१ ई० पू० में पावा में हुआ। __अधिकांश लेखकों ने यह तो स्वीकार किया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य वीर निर्वाण सं० १५५वें वर्ष में गद्दी पर बैठा। यदि हम महावीर की निर्वाण-तिथि के ५२७ ई० पू० या ४६७ ई० पू० मानें तो सम्पूर्ण ऐतिहासिक सामञ्जस्य डाँवाडोल हो जाता है। ५२७ ई० पू० मानने पर चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण को ५२७ - १५५ - ३७२ ई० पू० तथा ४६७ ई० पू० मानने पर उसके राज्यारोहण को ४६७ - १५५ = ३२१ ई० पू० मानना पड़ेगा। दोनों ही स्थितियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से स्वीकार नहीं हो सकतीं। दोनों ही स्थितियों में सिकन्दर से चन्द्रगुप्त के मिलने का ऐतिहासिक सन्दर्भ निरर्थक सा हो जाता है। प्रथम स्थिति मानें तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण तक अभी सिकन्दर का जन्म ही नहीं हुआ था और दूसरी स्थिति मानें तो उसकी ऐतिहासिक मृत्यु को ही झुठलाना होगा। यह सर्वथा निश्चित है कि ३१२ ई० पू० के बहुत पहले ही भारत से अपने देश लौटते हुए लगभग ३२३ ई० पू० में बेबीलोन में उसकी मृत्यु हो गई। सिकन्दर सितम्बर ३२५ ई० पू० में ही भारत की सीमा को छोड़ चुका था। सिकन्दर के आक्रमण के समय पूरी घटना से परिचित यूनानी लेखकों द्वारा वर्णित सिकन्दर और चन्द्रगुप्त के ऐतिहासिक भेंट को अस्वीकार करना सत्य को अस्वीकार करना होगा। इस सन्दर्भ के आधार पर देखें तो चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के १५५ वर्ष पहले अर्थात् १५५ + ३२६ = ४८१ ई० पू० में महावीर की निर्वाण तिथि सिद्ध होती __ महावीर की निर्वाण-तिथि के सम्बन्ध में जैन पट्टावलियों का विशेष महत्त्व है। इन पट्टावलियों में जैन मुनियों की आचार्य-परम्परा का उल्लेख रहता है। इसके साथ ही कभी-कभी तत्कालीन नरेशों के साथ उनके सम्बन्धों का भी वर्णन रहता है। फलस्वरूप ये पट्टावलियाँ जो विशुद्ध धार्मिक हैं, ऐतिहासिक तिथि-निर्णय में सहायक सिद्ध होती हैं। महावीर की निर्वाण-तिथि ( ४८१ ई० पू० ) को पट्टावलियों के माध्यम से भी जाँचा-परखा जा सकता जनश्रुतियों एवं कालान्तर के जैन स्रोतों से यह स्पष्ट होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य अपने अन्तिम दिनों में जैन धर्मावलम्बी हो गया था और उसके प्रगाढ़ सम्बन्ध जैन आचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र से थे। ये दोनों आचार्य उसके समसामयिक थे। जैन पट्टावलियों से ज्ञात होता है कि आचार्य भद्रबाहु वीर निर्वाण संवत् १५६ से १७० तक आचार्य रहे । यदि हम तित्थोगालिपइन्नयं के आधार पर चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण २१५ वीर निर्वाण संवत् मानें तो भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की समसामयिकता सिद्ध नहीं हो पाती - अतः यह मत अस्वीकार करने योग्य है। हमें आचार्य हेमचन्द्र के मत को ही मानना होगा कि चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण वीर निर्वाण संवत् १५५ में अर्थात् ४८१ – १५५ = ३२६ ई० पू० में हुआ। आचार्य भद्रबाहु ३२५ ई० पू० से लेकर ३११ ई० पू० तक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे और चन्द्रगुप्त का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525024
Book TitleSramana 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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