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२२ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९५
नाम वीरभद्र था, जो नाइलकुल के थे। उक्त प्रशस्ति में यह भी कहा गया है कि उक्त ग्रन्थ हाइकपुर में वर्षावास के समय पूर्ण किया गया। जम्बूचरियं की प्रशस्ति में इन्होंने अपनी गुरु-परम्परा के बारे में कुछ विस्तृत जानकारी दी है जिसके अनुसार नाइलकुल में प्रद्युम्नसूरि (प्रथम ) नामक आचार्य हुए। उनके शिष्य का नाम वीरभद्र था। वीरभद्र के शिष्य प्रद्युम्नसूरि ( द्वितीय ) हुए। जम्बूचरियं के रचनाकार गुणपाल इन्हीं के शिष्य थे।१५
कुवलयमालाकहा ( रचनाकाल शक सं०७००/ई० सन् ७७८ ) के कर्ता उद्योतनसूरि ने भी अपनी उक्त कृति की प्रशस्ति में अपने सिद्धान्तगुरु के रूप में किन्हीं वीरभद्रसूरि का उल्लेख किया है जिन्हें समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर गुणपालकथित वीरभद्रसूरि से समीकृत किया जा सकता है -
प्रद्युम्नसूरि (प्रथम)
वीरभद्रसूरि
प्रद्युम्नसूरि (द्वितीय)
उद्योतनसूरि (ई० सन् ७७८में
कुवलयमालाकहा के रचनाकार) गुणपाल (रिसिदत्ताचरिय एवं जम्बूचरियं के रचनाकार )
- नागेन्द्रकुल से सम्बद्ध अगला साक्ष्य ईस्वी सन् की १०वीं शताब्दी के तृतीय चरण का है। जम्बूमुनि द्वारा रचित जिनशतक की पंजिका ( रचनाकाल वि० सं० १०२५/ई० सन् ६६६ ) के रचनाकार साम्बमुनि इसी कुल के थे। भृगुकच्छ से प्राप्त शक संवत् ६१०/ई० सन् ६८८ की पीतल की एक त्रितीर्थी जिनप्रतिमा पर नागेन्द्रकुल के पाश्विलगणि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक आचार्य के रूप में उल्लेख मिलता है। वहाँ उक्त मुनि के गुरु और प्रगुरु का भी नाम दिया गया
१. आसीन्नागांद्रकुल लक्ष्मणसूरिर्नितांतसांत २. मतिः।। तद्गाच्छ गुरुतरुयन्नाम्नासीत् सीलरुद्रगणि ३. :। सिष्येण मूलवसातो जिनत्रयमकार्य्यत ।। भृगु ४. कच्छे तदीयन पार्विवल्लगणिना वरं ।। सकसं ५. वत् ।। ६१० ।।
उक्त उत्कीर्ण लेख में तालव्य श के स्थान पर दन्त्य स का प्रयोग हुआ है। इसे कुछ सुधार के साथ आधुनिक पद्धति से निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता
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