SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९५ भक्तामर स्तोत्र का उद्भवकाल मृत्यु के अन्धकार से आच्छन्न था । मानतुङ्ग फँस चुका है - बेड़ियों में, कुचक्रियों के कुचक्र में अब क्या करे? इस क्षण में तो एकमात्र उसका समर्थ उपास्य ही शरण्य हो सकता है। ध्यान केन्द्रित करता है - अपने प्रभु-पादपद्मों में, जैसे भागवत का गजेन्द्र प्राक्तन संस्कारवशात् • अपने हृदयेश की स्मृति में अपनी वृत्तियों को सर्वात्मना नियोजित करता । हृदय के भाव सुन्दर शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त होने लगते हैं, जो वाद के संसार में मानतुङ्ग हृदय से निःसृत स्तोत्र - प्रस्रविनी भक्तामर स्तोत्र और गजेन्द्र के मनोमय आकाश से उद्भूत सुस्वर स्वर लहरियाँ गजेन्द्र-मोक्ष के नाम से प्रसिद्धि पाती हैं। १. स्तोता ८ : जिसकी सम्पूर्ण वृत्तियाँ प्रभु को प्राप्तकर जाती हैं, उसी के हृदय धरातल से समर्थ की स्तुति सरिता प्रस्रवित होती है। जिसने हृदय को खोल दिया, राग-द्वेषादि कषायों को विगलित कर दिया, वही किसी गुणाकर का गुणकीर्तन करने के लिए प्रस्तुत होता है, जिसका एकमात्र लक्ष्य उसका उपास्य ही रह जाना है। तोता का प्रथम गुण होता है अपनी हीनता, नीचता और अज्ञानता को प्रभु के सामने उद्घाटित कर देना। उसको यह ज्ञान होता है कि वह तो है महामूर्ख समर्थ की स्तुति, उनका गुणसंगायन कैसे करे ? लेकिन उसी के सहारे उसी के गुणगायन में संलग्न हो जाता है । मानतुङ्गाचार्य जब मृत्युसंकट में फँस गया, तब समर्थ-शरण्य की शरणागति ही दिखाई पड़ी। एक तरफ विराट् विभूतियों से परिपूर्ण प्रभु जिनेश्वर और दूसरी ओर अल्पसत्त्वप्राणी । यहाँ भी वही स्थिति है जो गीता में कृष्ण के विश्वरूप के सामने अर्जुन की हुई थी। महान की स्तुति करना मानतुङ्ग को बालक द्वारा चन्द्रबिम्बग्रहण के समान दिखाई पड़ा। यही 'अहं का विलय' स्तोता का स्तव्य की ओर जाने का प्रथम सोपान तथा स्तुति - काव्य की प्रसवभूमि है — बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चित-पादपीठ ! | स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत- त्रपोऽहम् ।। बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दुबिम्बमन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ।। अपनी असमर्थता और अज्ञानता के बोध से भक्त हताश नहीं होता बल्कि उसी के सहारे शक्तिमान होकर अपने उपास्य के घर जाने के लिए तैयार हो जाता है Jain Education International सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश । कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525023
Book TitleSramana 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy