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________________ 156 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995 विचारणा के समान ही सार्वभौम एवं वस्तुनिष्ठ ही रखना चाहते हैं। वे यह भी नहीं बताते कि अमुक वर्ग या व्यक्ति इस वर्ग का है, वरन् यही कहते हैं कि जिसकी मनोभूमिका एवं आचरण जिस वर्ग के अनुसार होगा, वह उस वर्ग में आ जायेगा। पूर्णकश्यप के दृष्टिकोण की समालोचना करते हुए भगवान बुद्ध आनन्द से कहते हैं कि मैं अभिजातियों को तो मानता हूँ लेकिन मेरा मन्तव्य दूसरों से पृथक हैं।16 मनोदशाओं के आधार पर आचरणपरक वर्गीकरण बौद्ध विचारणा का प्रमुख मन्तव्य था। बौद्ध विचारणा में प्रथमतः प्रशस्त और अप्रशस्त मनोभाव तथा कर्म के आधार पर मानव जाति को कृष्ण और शुक्ल वर्ग में रखा गया। जो क्रूर कर्मी हैं वे कृष्ण अभिजाति के है और जो शुभ कर्मी हैं वे शुक्ल अभिजाति के हैं। पुनः कृष्ण प्रकार वाले और शुक्ल प्रकार वाले मनुष्यों को गुण-कर्म के आधार पर तीन-तीन भागों में बाँटा गया है। जैनागम उत्तराध्ययन में भी लेश्याओं को प्रशस्त और अप्रशस्त इन दो भागों में बाँटकर प्रत्येक के तीन-तीन विभाग किये गये हैं। बौद्ध विचारणा ने शुभाशुभ कर्मों एवं मनोभावों के आधार पर छः वर्ग तो मान लिये, लेकिन इसके अतिरिक्त उन्होंने एक वर्ग उन लोगों का भी माना जो शुभाशुभ से ऊपर उठ गये हैं और इसे अकृष्ण शक्ल कहा। जैसे जैन दर्शन में अर्हत को अलेशी कहा गया है। इस प्रकार बुद्ध ने निम्न छः अभिजातियाँ प्रतिपादित की है -- ___(1) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में पैदा हुआ) हो और कृष्ण धर्म (पापकृत्य) करता है। ___ (2) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो और शुक्ल धर्म करता है। (3) कोई व्यक्ति कृष्णाभिजातिक हो अकृष्ण- अशुक्ल निर्वाण को समुत्पन्न करता (4) कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक ( उच्चकुल में समुत्पन्न हुआ ) हो तथा शुक्ल धर्म (पुण्य ) करता है। (5) कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो और कृष्णकर्म करता है। (6) कोई व्यक्ति शुक्लाभिजातिक हो अशुक्ल-अकृष्ण निर्वाण को समुत्पन्न करता इस वर्गीकरण में भगवान बुद्ध ने जन्म और कर्म दोनों को ही अपना आधार बनाया है जबकि जैन परम्परा मनोभावों और कर्मों को ही महत्त्व देती है, जन्म को नहीं। फिर भी उसमें देव एवं नारक के सम्बन्ध में जो लेश्या की चर्चा है उससे ऐसा लगता है कि वह वर्ग विशेष में जन्म के साथ लेश्या विशेष की उपस्थिति मानते थे। लेश्या-सिद्धान्त और गीता गीता में भी प्राणियों के गुण-कर्म के अनुसार व्यक्तित्व के वर्गीकरण की धारणा मिलती है। गीता न केवल सामाजिक दृष्टि से प्राणियों को गण-कर्म के अनुसार चार वर्गों में वर्गीकृत करती है, वरन् वह आचरण की दृष्टि से भी एक अलग वर्गीकरण प्रस्तुत करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525022
Book TitleSramana 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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