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________________ जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और निरपेक्षता : 131 में उत्सर्ग मार्ग सामान्य मार्ग है, जिस पर सामान्य अवस्था में हर एक साधक को चलना होता है। जब तक देशकाल और वैयक्तिक दृष्टि से कोई विशेष परिस्थिति उत्पन्न नहीं हो जाती है तब तक प्रत्येक व्यक्ति को इस सामान्य मार्ग पर ही चलना होता है, लेकिन विशेष अपरिहार्य परिस्थितियों में वह अपवाद मार्ग पर चल सकता है। लेकिन यहाँ भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इसका निर्णय कौन करे कि किस परिस्थिति में अपवाद मार्ग का सेवन किया जा सकता है। यदि इसके निर्णय करने का अधिकार स्वयं व्यक्ति को दे दिया जाता है तो फिर नैतिक जीवन में समरूपता और वस्तुनिष्ठता (Objectivity) का अभाव होगा, हर एक व्यक्ति अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो अपवाद मार्ग का सहारा लेगा। जैन विचारणा इस क्षेत्र में व्यक्ति को अधिक स्वतन्त्र नहीं छोड़ती है। वह नैतिक प्रत्ययों को इतना अधिक व्यक्तिनिष्ट (Subjective) नहीं बना देना चाहती है कि प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उनको मनमाना रूप दिया जा सके। जैन विचारणा नैतिक मर्यादाओं को यद्यपि इतना कठोर भी नहीं बनाती कि व्यक्ति उनके अन्दर स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण नहीं कर सके लेकिन वे इतनी अधिक लचीली भी नहीं है कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार उन्हें मोड़ दे। उपाध्याय अमरमुनिजी के शब्दों में "जैन विचारणा में नैतिक मर्यादाएँ उस खण्डहर दुर्ग के समान नहीं है, जिसमें विचरणा की पूर्ण स्वतन्त्रता तो होती है, लेकिन शत्रु के प्रविष्ट होने का भय सदा बना होता है, वरन् सुदृढ़ चारदीवारियों से युक्त उस दुर्ग के समान है जिसके अन्दर व्यक्ति को विचरण की एक सीमित स्वतन्त्रता होती है। जैनदर्शन के अनुसार नैतिकता के इस दुर्ग में द्वारपाल के स्थान पर "गीतार्थ" होता है जो देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों को समझने में समर्थ हो। जैनागमों में गीतार्थ के सम्बन्ध में कहा गया है, "गीतार्थ वह है जिसे कर्तव्य और अकर्तव्य के लक्षणों का यथार्थस्पेण ज्ञान है।22 जो आय-व्यय, कारण-अकारण, अगाढ़ (रोगी, वृद्ध )- अनागाढ़, वस्तु-अवस्तु, युक्त-अयुक्त, समर्थ-असमर्थ, यतना-अयतना का सम्याज्ञान रखता है, साथ ही समस्त कर्तव्य कर्म के परिणामों को भी जानता है वही विधिवान् गीतार्थ है।"23 यद्यपि जैन नैतिक विचारणा के अनुसार परिस्थिति विशेष में कर्तव्याकर्तव्य का निर्धारण गीतार्थ करता है लेकिन उसके मार्ग निर्देशक के रूप में आगम ग्रन्थ ही होते हैं। यहाँ पर जैन नैतिकता की जो विशेषता हमें देखने को मिलती है वह यह है कि वह न तो एकान्त रूप से शास्त्रों को ही सारे विधि-निषेध का आधार बनाती है और न व्यक्ति को ही। उसमें शास्त्र मार्गदर्शन है लेकिन निर्णायक नहीं। व्यक्ति किसी परिस्थिति विशेष में क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है इसका निर्णय तो ले सकता है लेकिन उसके निर्णय में शास्त्र ही उसका मार्गदर्शक होता है। सन्दर्भ 1. "Act only on that maxim (Principle ) which thou canst at the same time will to become a Universal Law.' Fundamental Principles of the Metaphysics of Morals, Sec. Il Leviathan, Part II, Chapt. 27, p.13 (Morley's Universal Library edition)-- Hobbes. 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525022
Book TitleSramana 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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