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________________ मन कि चित्त को शान्त करने के लिये उसे संकल्प-विकल्प से मुक्त करना होगा और इस हेतु ज्ञाता - द्रष्टा या साक्षी बनाना होगा। जब चित्त या मन द्रष्टा, साक्षी और अप्रमत्त होगातो स्वाभाविक रूप से वह वासनाओं एवं विक्षोभों से मुक्त हो जाएगा। चित्त - विक्षोभ केवल प्रमत्तदशा में रह सकता है, अप्रमत्तदशा में नहीं । यह बात आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। जब मन स्वयं अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनेगा तो वह उनका कर्ता नहीं रह जाएगा, क्योंकि एक ही मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता दोनों नहीं हो सकता । जिस समय वह द्रष्टा-भाव में होगा उसी समय उसमें कर्ताभाव नहीं रह सकता । उदाहरण के लिए जब हम क्रोध करते हैं, उस समय अपनी क्रोध की अवस्था को जानते नहीं हैं और जब अपनी क्रोध की अवस्था को जानने का प्रयास करते हैं तो क्रोध शान्त होने लगता है। मनोविज्ञान का यह नियम है कि जब विवेक जाग्रत होगा तो वासना क्षीण होगी और जब वासना जाग्रत होगी तो विवेक क्षीण होगा। अतः साधना में आवश्यकता होती है विवेक को जाग्रत बनाये रखने की । वासना-क्षय का सम्यक् मार्ग वासनाओं का दमन नहीं, अपितु विवेक को जाग्रत करना है । साधक को अपनी शक्ति वासनाओं से संघर्ष करने में नहीं अपितु विवेक को जाग्रत करने में लगानी चाहिए। वस्तुतः मन में जब विवेक का प्रकाश होता है तो वासना उसमें प्रवेश नहीं कर पाती। जैसे जब घर का मालिक जागता है तो चोर घर में प्रवेश नहीं करता। जब मन अप्रमत्त या जाग्रत रहता है तो वासनाएँ स्वयं विलुप्त हो जाती हैं। मन की विभिन्न अवस्थायें शक्ति, स्वरूप और साधना : एक विश्लेषण : 117 वासना से विवेक की ओर, प्रमत्तता से अप्रमत्तता की ओर मन की यह यात्रा अनेक सोपानों से होती है। जैन, बौद्ध और हिन्दू परम्परा में इस सम्बन्ध में समानान्तर रूप से . इन सोपानों का उल्लेख मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में मन की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया है - -- 1. विक्षिप्त मन अवस्था है। इसे प्रमत्तता की अवस्था भी कह सकते हैं। -- Jain Education International यह मने की विषयासक्त और संकल्प-विकल्पयुक्त विक्षुब्ध 2. यातायात मन मन इस अवस्था में कभी बहिर्मुखी हो विषय की ओर दौड़ता है। तो कभी अन्तर्मुखी हो द्रष्टा या साक्षी बनने का प्रयास करता है । साधना की प्रारम्भिक स्थिति में मन की यह अवस्था रहती है । यह 'प्रमत्ताप्रमत्तं' अवस्था है। -- 3. श्लिष्ट मन यह चित्त की अप्रमत्त अवस्था है । यहाँ चित्त निर्विषय तो नहीं होता किन्तु उसके विषय शुभ- भाव होते हैं। यह अशुभ मनोभावों की विलय की अवस्था है, अतः इसे आनन्दमय अवस्था भी कहा गया है 1 4. सुलीन मन यहाँ चित्तवृत्तियों का पूर्ण विलयन हो जाता है और चित्त शुभ - अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है। यह उसकी शुद्ध ज्ञाता - द्रष्टा अवस्था है इसे परमानन्द या समाधि की अवस्था भी कहा जा सकता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525022
Book TitleSramana 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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