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________________ 112 : श्रमण / अप्रैल-जून/1995 पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, ये विषय वीतरागियों के लिए बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते। 62 कामभोग किसी को भी सम्मोहित नहीं करा सकते न किसी में विकार ही पैदा कर सकते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है। 63 गीता में भी इसी प्रकार निर्देश दिया गया है कि साधक इन्द्रिय के विषयों अर्थात् भोगों में उपस्थित, जो राग और द्वेष हैं, उनके वश में नहीं हो क्योंकि ये दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं। 64 जो मूढबुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों को हठात् रोककर इन्द्रियों के भोगों का मन से चिन्तन करता रहता है, उस पुरुष के राग-द्वेष निवृत्त न होने के कारण वह मिथ्याचारी या दम्भी कहा जाता है। 65 इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु राग निवृत्त नहीं होता। जबकि निर्वाण लाभ के लिए राग का निवृत्त होना परमावश्यक है। 66 वास्तविकता यह है कि निरोध इन्द्रिय-व्यापारों का नहीं वरन् उनमें निहित राग-द्वेष का करना होता है, क्योंकि बन्धन का वास्तविक कारण इन्द्रिय- व्यापार नहीं, वरन् राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ हैं । जैन दार्शनिक कहते हैं इन्द्रियों के शब्दादि मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए ही राग-द्वेष के कारण होते हैं, वीतराग के लिये नहीं । 67 गीता कहती है कि राग-द्वेष से विमुक्त व्यक्ति इन्द्रिय-व्यापारों को करता हुआ भी पवित्रता को ही प्राप्त होता है। 68 इस प्रकार जैनदर्शन और गीता इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध की बात नहीं कहते, वरन् इन्द्रियों के विषयों के प्रति राग-द्वेष की वृत्तियों के निरोध की धारणा को प्रस्थापित करते हैं । इसी प्रकार मनोनिरोध के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्त धारणाएँ बना ली गई हैं, यहाँ हम उसका भी यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। इच्छानिरोध या मनोनिग्रह भारतीय आचार-दर्शन में इच्छा-निरोध एवं वासनाओं के निग्रह का स्वर काफी मुखरित हुआ है । आचारदर्शन के अधिकांश विधि-निषेध इच्छाओं के दमन से सम्बन्धित हैं, क्योंकि इच्छाएँ तृप्ति चाहती हैं और इस प्रकार चित्त शान्ति या आध्यात्मिक समत्व का भंग हो जाता है। अतः यह माना गया कि समत्व के नैतिक आदर्श की उपलब्धि के लिए इच्छाओं का दमन कर दिया जाय । मन इच्छाओं एवं संकल्पों का उत्पादक है, अतः इच्छानिरोध का अर्थ मनोनिग्रह ही मान लिया गया। पतंजलि ने तो यहाँ तक कह दिया कि चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। यह माना जाने लगा कि मन स्वयं ही समग्र क्लेशों का धाम है। उसमें जो भी वृत्तियाँ उठती है वे सभी बन्धनरूप है। अतः उन मनोव्यापारों का सर्वथा अवरोध कर देना यही निर्विकल्पक समाधि है, यही नैतिक जीवन का आदर्श है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों में इच्छानिरोध और मनोनिग्रह के प्रत्यय को स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है, "यह मन उस दुष्ट और भयंकर अश्व के समान है जो चारों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525022
Book TitleSramana 1995 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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