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________________ तीर्थकर और ईश्वर के सम्प्रत्ययों का तुलनात्मक विवेचन - प्रो. सागरमल जैन धर्म श्रद्धा पर आधारित है और श्रद्धा का कोई केन्द्र-बिन्दु होना चाहिए। इसी केन्द्र-बिन्दु के रूप में धर्म के अन्तर्गत ईश्वर की अवधारणा निर्मित हुई है। विश्व के सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में श्रद्धा के केन्द्र-बिन्दु के रूप में ईश्वर का प्रत्यय स्वीकृत रहा है तथापि उसके स्वरूप एवं नाम के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। बौद्ध धर्म में उसे अर्हत, बुद्ध, धर्मकाय और जैनधर्म में परमात्मा, तीर्थकर, वीतराग, अरहन्त आदि नामों से अभिहित किया गया है। सभी धर्मों में उस परमात्मा या ईश्वर को सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, समस्त दोषों से रहित और समस्त गुणों का पुंज माना गया है। इन अवधारणाओं के सन्दर्भ में सामान्य रूप से विभिन्न धर्मों में किसी प्रकार का मतभेद नहीं है किन्तु कुछ अन्य ऐसी अवधारणाएँ हैं जिन्हें कुछ धर्म स्वीकार नहीं करते। जैसे -- ईश्वर अद्वितीय है, वह एकमेव है, वह विश्व का सष्टा और नियन्ता है, वह अपनी असीम करुणा के द्वारा अपने भक्तों का कल्याण और दुष्टों का संहार भी करता है। जहाँ तक जैनधर्म का प्रश्न है उसमें भी परमात्मा को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वशक्तिमान् और आनन्दपुंज के रूप में अनन्त-चतुष्टय से युक्त माना गया है, किन्तु वह न तो ईश्वर या परमात्मा को विश्व का स्रष्टा और नियन्ता मानता है और न उसे संसार के प्राणियों के अपने शुभाशुभ कर्मों का फल-प्रदाता के रूप में स्वीकार करता है। इसी प्रकार उसमें एक मात्र अद्वितीय ईश्वर की अवधारणा के स्थान पर अनेक परमात्माओं. अरहन्तों (तीर्थकरों) एवं सिद्धों की कल्पना की गयी है। यद्यपि उपनिषदों में "अहं ब्रह्मास्मि" के उद्घोष के द्वारा आत्मा और परमात्मा में या जीव और ईश्वर में तादात्म्य माना गया था तथापि आगे चलकर हिन्दू-परम्परा में ईश्वर को अंशी और जीव को अंश मानकर इस सूत्र की व्याख्या की गयी। वस्तुतः जब ईश्वर को अद्वितीय और एकमेव मान लिया जाता है तो जीव और जगत् की उससे स्वतन्त्र या पृथक् सत्ता नहीं स्वीकार की जा सकती थी। यही कारण रहा कि पूर्व और पश्चिम के अधिकांश धर्मों में जीव और जगत् को ईश्वरीय संकल्प से अभिव्यक्त एवं संचालित माना गया और विश्व-व्यवस्था को ईश्वरीय-इच्छा के अधीन माना गया। - जैन-दार्शनिकों को विश्व-सष्टा और विश्व-नियन्ता ईश्वर की यह अवधारणा मान्य नहीं रही है। उनका कथन है कि आप्तकाम पूर्ण ईश्वर या वीतराग परमात्मा विश्व के निर्माण, विनाश और संचालन की प्रक्रिया में क्यों उलझेगा ? जो आप्तकाम है, पूर्ण है उसमें कोई इच्छा या कामना शेष ही नहीं रहती है और बिना इच्छा या कामना के कोई भी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। अतः ईश्वर के द्वारा विश्व का सर्जन, विनाश या संचालन सम्भव नहीं है। पुनः यदि ईश्वर में कोई सृजन, संहार या पालन की इच्छा शेष रहती है तो वह पूर्ण और आप्तकाम तो नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525021
Book TitleSramana 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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