SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 72 सकारात्मक अहिंसा की भूमिका अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष की प्रमुखता के आगमिक आधार यह सत्य है कि श्रमण परम्परा ने और विशेष रूप से जैनधर्म ने अहिंसा के अर्थ-विस्तार को एक व्यापकता प्रदान की है। किन्तु इसके साथ यह भी सत्य है कि इस अहिंसा के अर्थ-विस्तार के साथ अनेक दार्शनिक समस्यायें भी उत्पन्न हुई । अहिंसा के क्षेत्र का विस्तार करते हुए जब एक ओर यह मान लिया गया कि जीवन के किसी भी रूप को दुःख या पीड़ा देना अथवा उसके अहित और अकल्याण का चिन्तन करना हिंसा है, साथ ही दूसरी ओर यह भी स्वीकार कर लिया गया कि न केवल मनुष्य - जगत, पशु-जगत और वनस्पति- जगत में जीवन है, अपितु पथ्वी, जल, वायु आदि भी जीवन - युक्त है, तो यह समस्या उत्पन्न हुई कि जब जीवन के एक रूप के अस्तित्व के लिए उसके दूसरे रूपों का विनाश या हिंसा अपरिहार्य हो तो ऐसी स्थिति में चुनाव हिंसा और अहिंसा के बीच न करके दो हिंसाओं के बीच ही करना पड़ेगा? जिन चिन्तकों ने जीवन के सभी रूपों को समान मूल्य और महत्त्व का समझा, उन्हें अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की उपेक्षा करनी पड़ी। क्योंकि सकारात्मक अहिंसा अर्थात् सेवा, दान, परोपकार आदि की सभी क्रियाएँ प्रवृत्त्यात्मक हैं और प्रवृत्ति जैन पारिभाषिक शब्दावली में योग चाहे किसी भी रूप में क्यों न हो उसमें कहीं न कहीं हिंसा / आस्रव का तत्त्व तो होता ही है । यदि हम प्रवृत्ति के पूर्ण निषेध को ही साधना का लक्ष्य मानें, तो ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से अहिंसा की अवधारणा निषेधमूलक होगी। ज्ञातव्य है कि उन सभी धर्मों के लिए जिन्होंने पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति आदि में जीवन ही नहीं माना अथवा यह मान लिया कि जीवन के ये विविधरूप समान मूल्य या महत्त्व के नहीं हैं अथवा यह कि परमात्मा ने जीवन के इन दूसरे रूपों को मनुष्य के उपयोग के लिए ही बनाया है, उन्हें अहिंसा के सकारात्मक पक्ष को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं आई । समस्या केवल उनके लिए थी, जो जीवन के इन विविध रूपों को समान मूल्य या महत्त्व का मान रहे थे । यह सत्य है कि जैन परम्परा में निवृत्ति और जीवन के विविध रूपों की समानता पर पर अधिक बल दिया गया और परिणामस्वरूप जैनधर्म में अहिंसा का निषेधात्मक पक्ष अधिक प्रमुख बना। विशेष रूप से उन जैन श्रमणों के लिए जो निवृत्त्यात्मक साधना को ही जीवन का एक मात्र उच्चादर्श मान रहे थे। उनके जीवन-व्यवहार एवं आचार-नियमों को इस रूप में ढाला गया कि वे मुख्य रूप से अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष के समर्थक बन कर रह गये। जैनधर्म के प्राचीनतम आगम ग्रन्थों में ऐसे कुछ सन्दर्भ अवश्य हैं जो अहिंसा के इस नकारात्मक पहलू को ही प्रमुखता देते हैं । सूत्रकृतांग ( 1/11/18-20) में एक उल्लेख है कि जब मुनि से कोई गृहस्थ यह पूछे कि मैं दानशाला आदि बनवाना चाहता हूँ, इसमें आपकी क्या सम्मति है ? तो मुनि उस समय मौन रहें । सूत्रकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि यदि मुनि उसकी उस प्रवृत्ति का सर्मथन करता है तो उसमें होने वाली पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि की प्रत्यक्ष हिंसा एवं द्वीन्द्रिय आदि जीवों की परोक्ष हिंसा का भागीदार बनता है। इसके विपरीत यदि वह उस दानादि की प्रवृत्ति का निषेध करता है तो वह उसके द्वारा से जिन प्राणियों का कल्याण, हित एवं सुख होने वाला है उसमें बाधक बनता है। अतः दोनों ही स्थितियों में कहीं न कहीं हिंसा I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525021
Book TitleSramana 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy