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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श
परम्पराओं के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारचूला, दशवैकालिक, निशीथ आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुआ है । इसी प्रकार ऋषिभाषित उत्तराध्ययन, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्श्वपत्यों का महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में कैसे परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार के अनेक प्रश्न जिनके कारण आजका जैन समाज साम्प्रदायिक कठघरों में बन्द है, अर्धमागधी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं। शौरसेनी आगमों में मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को, जो अपनी विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं। अर्धमागधी - आगम शौरसेनी - आगम और परवर्ती महाराष्ट्री व्याख्या साहित्य के आधार
अर्धमागधी - आगम शौरसेनी आगम और महाराष्ट्री आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार रहे हैं। अर्धमागधी आगमों की व्याख्या के रूप में क्रमशः निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे गये हैं, ये सभी जैनधर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत है। यद्यपि शौरसेनी आगम और व्याख्या साहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ देश, काल और सहगामी परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कह जा सकती है फिर भी अर्धमागधी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक नियुक्ति, जीवसमास, आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक ( चन्दावेज्झय ) आदि में उपलब्ध होती है। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी अनेक गाथायें अर्धमागधी आगम और विशेष रूप से प्रकीर्णकों (पइन्ना) से मिलती है । षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती है, उनकी विस्तृत चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो. ए. एन. उपाध्ये व्याख्यानमाला में ) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों में भी पाई जाती है, जबकि समयसार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगम ग्रन्थ भी है, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को ही है । तिलोयपन्नति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यक नियुक्ति तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है। इस प्रकार शौरसेनी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम साहित्य ही रहा है तथापि उनमें जो सैद्धान्तिक गहराईयाँ और विकास परिलक्षित होते हैं, वे उनके रचनाकारों की मौलिक देन है।
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अर्धमागधी आगमों का कृर्तत्व अज्ञात
अर्धमागधी आगमों में प्रज्ञापना, दशवैकालिक और छेदसूत्रों के कृर्तत्व छोड़कर शेष के
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