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________________ प्रो. सागरमल जैन 31 परिचत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए। अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा।। सचेलगो सुखी भवदि असुखी वा वि अचेलगो। अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंतए।। पंडितजी ने इन्हें उत्तराध्ययन की गाथा कहा है और उन्हें वर्तमान उत्तराध्ययन में अनुपलब्ध भी बताया है। किन्तु जब हमने स्वयं पंडितजी द्वारा ही सम्पादित एवं अनुवादित भगवतीआराधना की टीका देखी तो उसमें इन्हें स्पष्ट रूप से उत्तराध्ययन की गाथायें नहीं कहा गया है। उसमें मात्र "इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति" कहकर इन्हें उद्धृत किया गया है। आदरणीय पंडितजी को यह भ्रान्ति कैसे हो गई, हम नहीं जानते। पुनः ये गाथाएँ भी चाहे शब्दशः उत्तराध्ययन में न हों, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएँ और शब्द-रूप से इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही हैं। उपरोक्त उद्धृत गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएँ प्रस्तुत हैं-- "परिजुण्णेहिं वत्थेहिं होक्खामि त्ति अचेलए। अदुवा "सचेलए होक्खं" इदं भिक्खू न चिन्तए।। "एगया अचेलए होइ सचेले यावि एगया।" एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए।। -- उत्तराध्ययन, 2/12-13 जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में ही चूर्णि में आगत पाठों और शीलांक या अभयदेव की टीका में आगत पाठों में अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत की दृष्टि से पाठभेद रहा है, उसी प्रकार यापनीय परम्परा के आगम के पाठ माधुरी वाचना के होने के कारण शौरसेनी प्राकृत से युक्त रहे होंगे। किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि प्राचीन स्तर के सभी आगम ग्रन्थ मूलतः अर्धमागधी के रहे हैं। उनमें जो महाराष्ट्री या शौरसेनी के शब्द-रूप उपलब्ध होते हैं, वे परवर्ती हैं। विजयोदया में आचारांग आदि के सभी आगमिक सन्दर्भो को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूर्णतः शौरसेनी प्रभाव से युक्त हैं। मूलतः आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगम तो निश्चित ही अर्धमागधी में रहे हैं। यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं, प्रथम यही है कि माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया हो और यापनीयों ने उसे मान्य रखा हो। दूसरे यह है कि यापनीयों द्वारा उन आगमों का शौरसेनीकरण करते समय श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारांग आदि से उनमें पाठभेद हो गया हो, किन्तु इस आधार पर भी यह कहना उचित नहीं होगा कि यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा के आगम भिन्न थे। ऐसा पाठभेद तो एक ही परम्परा के आगमों में भी उपलब्ध है। स्वयं पं. कैलाशचन्द्रजी ने अपने ग्रन्थ जैन साहित्य का इतिहास-पूर्वपीठिका में अपराजितसूरि की भगवतीआराधना की टीका से आचारांग का जो उपर्युक्त पाठ दिया है, उसमें और स्वयं उनके द्वारा सम्पादित भगवतीआराधना की अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत पाठ में ही अन्तर है-- एक में "थीण" पाठ है-- दूसरे में "थीरांग" पाठ है, जिससे अर्थ-भेद भी होता है। एक ही लेखक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525021
Book TitleSramana 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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