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________________ 24 : डॉ0 जगदीश चन्द्र जैन आजकल चारों ओर जंगल से घिरी हुई श्रावस्ती (जिला बलरामपुर, गोंडा, उ० प्र0) का जैनों और बौद्धों के ग्रन्थों में विशिष्ट स्थान रहा है। अचिरावती ( राप्ती) नदी की बाढ़ से यहाँ के निवासी अत्यन्त संत्रस्त थे। नगरी के सुप्रसिद्ध धनी अनाथपिंडक, जिन्होंने जेतवन के विहार के निर्माण में बत्तीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ व्यय की थीं, का माल-खजाना इस नदी में बह गया । आवश्यकचूर्णी में इस बाढ़ का उल्लेख मिलता है। जैनों के तीसरे तीर्थकर संभवनाथ के जन्म से यह नगरी पावन हुई। आश्चर्य है कि फिर भी इसे विच्छिन्न माना गया है -- जैन धर्मानुयायी तीर्थयात्रा के लिये यहाँ नहीं आते। विशेषरूप से रल्लेखनीय है कि चौथी शताब्दी ई0 के "अंगविज्जा" नामक प्राचीन जैन ग्रन्थ में श्रावस्ती की पहचान सहित महला नामक स्थान से की गई है। आगे चलकर सुप्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता कनिंघम ने अपनी "एंश्येण्ट ज्योग्रफी ऑफ इंडिया" में इसे साहेत-माहेत अथवा महेठि के नाम से प्रतिष्ठित किया। उन्होंने सन् 1862-63 में और पुनः 1876 ई0 में इस नगरी को उत्खनन कराया और घोषित किया कि जैन और बौद्धकालीन कोशलदेश की राजधानी श्रावस्ती यही है जहाँ महावीर और बुद्ध ने विहार किया था। कितनी बड़ी त्रासदी है कि भगवान् महावीर के जन्म-स्थान की भाँति उनकी निर्वाण भूमि को भी उनके अनुयायियों ने भुला दिया। जबकि भगवान् बुद्ध के सम्बन्ध में यह बात नहीं हुई। उल्लेखनीय है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में राजगृह के निकट लगभग 10 मील के फासले पर स्थित पावा को ही महावीर की निर्वाण-स्थली पावा माना जाता रहा है। यहाँ दीपावली के अवसर पर बड़ा मेला लगता है जिसमें जैनयात्री दूर-दूर से आकर शरीक होते हैं। यहाँ के जलमन्दिर में गौतम गणधर और सुधर्मा की पादुकाएँ निर्मित लेकिन पुरातत्त्व सम्बन्धी आधुनिक खोजों से निष्कर्ष निकलता है कि वस्तुतः यह पावा भगवान महावीर की निर्वाणस्थली नहीं है। पडरौना (जिला - देवरिया. उ.प्र.) के निवासी श्री भगवती प्रसाद खेतान ने अपनी "महावीर निर्वाण- भूमि पावा : एक विमर्श" (1992 ) नामक विद्वत्तापूर्ण कृति में इस विषय के अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। कहना न होगा कि बुकनन ने सर्वप्रथम अपनी "हिस्ट्री ऐन्टिक्विटीज, टोपोग्रैफी, स्टैटिस्टिक्स ऑफ ईस्टर्न इंडिया" (प0 354) में पडरौना (पावा) का परिचय दिया है। यह प्रदेश गंडकी नदी के किनारे स्थित था और प्रति वर्ष बाढ़ से आप्लावित रहा था। यह बुकनन के प्रयास का ही परिणाम था कि सन् 1844 ई0 में यहाँ के प्राचीन टीले का उत्खनन कराया गया। यहाँ तीन प्रतिमाओं की उपलब्धि विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिनका विवरण विद्वान् लेखक ने अपनी उक्त पुस्तिका में (पृ0 186-191) दिया है। इन प्रतिमाओं में पहली स्पष्ट रूप से पादपीठ पर स्थित चतुर्भुज भगवान् विष्णु की खड्गासनधारी प्रतिमा है। दूसरी प्रतिमा पद्मासनधारी कृष्ण पाषाण की 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ की मानी जाती है। पहली प्रतिमा खड्गासन में है। नाभि के नीचे पुरुष की आकृति है किन्तु ऊपर की ओर उसका वक्षस्थल वस्त्र से आवृत्त है। यह विशाल मूर्ति खंडित है, गर्दन और भुजारहित है। कोई इसे बुद्ध की प्रतिमा www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.525020
Book TitleSramana 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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