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________________ मतभेद दिखता है। 1 आस्रव द्वारों या बन्ध हेतुओं के विषय में शास्त्रों में संक्षेप और विस्तार से चर्चा है । ऐसा प्रतीत होता है कि मोह और योग के विविध रूप ही भावात्मक हैं। ये परिणाम ही लोकव्यापी कर्म - परमाणुओं को कर्मरूप में परिणत कर बन्धित होते हैं। फिर भी विभिन्न ग्रन्थों में इन बन्ध हेतुओं को विविध प्रकारों से व्यक्त किया गया है। श्वेताम्बर ग्रन्थों में इन्हें आस्रवद्वार कहा गया है- संदर्भ, गाथा 1 2 3 4 5 6 7 मोह - - प्रवचनसार, 187 धवला, 12, 28825 - - • रागद्वेष कषाय - योग प्रवचनसार, 188 मोह राग द्वेष कषाय - योग - 4 समयसार 109 मिथ्यात्व अविरति समयसार, 190 मियात्व अविरति योग अज्ञान तत्त्वार्थसूत्र, 8.126 मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय - योग - 5 समयसार, 132 मिथ्यात्व अविरति कषाय- योग अज्ञान समयसार, 8727 मोह अविरति प्रमाद क्रोधादिक - योग अज्ञान 6 -- कर्म और कर्मबन्ध : 17 — संख्या 1 - 2 2 3 4 6 ऐसा प्रतीत होता है कि उमास्वाति ने भगवती, स्थानांग और समवायांग 28 के आस्रव-द्वारों का अनुसरण कर बन्धकारणों को पाँचरूप्य दिया है। उन्होंने कुन्दकुन्द की विविधता को सप्त तत्त्वों के समान पंच हेतुओं में स्थिर किया। इसे उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी माना है। इन प्रकारों में मोह या मिथ्यात्व को प्रथम स्थान प्राप्त है। इसका पूर्ण विलोपन सम्भव नहीं दिखता, इसके होने पर अन्य प्रत्यय होते हैं। उत्तरवर्ती द्विरूपता की व्याख्या इस समय चर्चा में है। इस चर्चा में प्रथम सदस्य मियात्व (70 कोडाकोडी सागरोपम आयु, प्रबलतम भाव योगात्मक) की स्थिति दयनीय हो गई है। उसका नामलेवा परेशानी में है क्योंकि अविरति और प्रमाद तो कषाय में गर्भित हो जाते हैं (यद्यपि भगवती में प्रसाद को क्रिया या योग माना है ) 29 और योग का स्वतन्त्र अस्तित्व माना जाता है। इसमें मिथ्यात्व क्यों गर्भित नहीं माना जाता, यह समझ में नहीं आया । तत्त्वार्थसूत्र 8.1 की टीका में मिथ्यादर्शन को क्रियासू अंतर्भूत कहा है 30 छठवें अध्याय के पाँचवें सूत्र में इसे सांपरायिक आस्रव की सकषायी योगप्रवृत्तियों में परिगणित किया है। 31 अजीव मिथ्यात्व को कुन्दकुन्द ने भी कर्म माना है । 32 योगात्मक प्रवृत्ति के अतिरिक्त, इसकी भावात्मकता तो प्रसिद्ध ही है क्योंकि कुन्दकुन्द ने सभी आस्रव द्वारों को भाव एवं द्रव्य. या चेतन-अचेतन रूप माना है। मूलाचारटीका 168 में भी मिथ्यात्व को भावात्मक रूप में बताकर उसे स्थिति अनुभाग बन्धक बताया है। ये भाव-प्रत्यय ही द्रव्यप्रत्यय में कारण होते हैं। भास्करनन्दि ने भी सूत्र 8.1 की टीका में 33 "तत्रकषायपर्यता" स्थित्यनुभागहेतवः कहकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525020
Book TitleSramana 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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