SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रो. सागरमल जैन 217 दी गई जबकि बोटिकों की उत्पत्ति का उल्लेख तो इसके भी बाद में है और मात्रा एक गाथा में है । अतः ये गाथाएँ किसी भी स्थिति में नियुक्ति की गाथायें नहीं मानी जा सकती हैं। --- पुनः यदि हम बोटिक निह्यव सम्बन्धी गाथाओं को भी नियुक्ति गाथाएँ मान भी लें तो भी नियुक्ति के रचनाकाल की अपर सीमा को वीरनिर्वाण संवत् 610 अर्थात् विक्रम की तीसरी शती के पूर्वार्ध से आगे नहीं ले जाया जा सकता है क्योंकि इसके बाद के कोई उल्लेख हमें नियुक्तियों में नहीं मिले। यदि निर्युक्ति नैमित्तिक भद्रबाहु ( विक्रम की छठी सदी उत्तरार्द्ध) की रचनाएँ होतीं तो उनमें विक्रम की तीसरी सदी से लेकर छठी सदी के बीच के किसी न किसी आचार्य एवं घटना का उल्लेख भी, चाहे संकेत रूप में ही क्यों न हो, अवश्य होता । अन्य कुछ नहीं तो माथुरी एवं वलभी वाचना के उल्लेख तो अवश्य ही होते, क्योंकि नैमित्तिक भद्रबाहु तो उनके बाद ही हुए हैं। वलभी वाचना के आयोजक देवर्द्धिगणि के तो वे कनिष्ठ समकालिक हैं, अतः यदि वे निर्युक्ति के कर्त्ता होते तो वलभी वाचना का उल्लेख नियुक्तियों में अवश्य करते । 67 3. यदि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु ( 6ठवीं सदी - उत्तरार्द्ध) की कृति होतीं तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती। छठीं सदी के उत्तरार्द्ध में गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो गई थी और उस काल में लिखी गई कृतियों में प्रायः गुणस्थान का उल्लेख मिलता है किन्तु जहाँ तक मुझे ज्ञात है, नियुक्तियों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आवश्यकनिर्युक्ति की जिन दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है, 7 वे मूलतः नियुक्ति गाथाएँ नहीं हैं। आवश्यक मूल पाठ में चौदह भूतग्रामों (जीव-जातियों) का ही उल्लेख है, गुण स्थानों का नहीं । अतः नियुक्ति तो भूतग्रामों की ही लिखी गयी । भूतग्रामों के विवरण के बाद दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नाम दिये गये हैं । यद्यपि यहाँ गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं है । ये दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि हरिभद्र (आठवीं सदी) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में "अधुनामुमैव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार" कहकर इन दोनों गाथों को संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है। 68 अतः गुणस्थान सिद्धान्त के स्थिर होने के पश्चात् संग्रहणी की ये गाथाएँ नियुक्ति में डाल दी गई हैं । नियुक्तियों में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी शती के पूर्व हुई थी । इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियां नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना नहीं हैं। 4. साथ ही हम देखते हैं कि आचारांगनिर्युक्ति में आध्यात्मिक विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है 69 जो हमें तत्त्वार्थसूत्र में भी मिलती हैं 70 और जिनसे आगे चलकर गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई है । तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांगनिर्युक्ति दोनों ही विकसित गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में सर्वथा मौन हैं, जिससे यह फलित होता है कि नियुक्तियों का रचनाकाल तत्त्वार्थसूत्र के सम-सामयिक ( अर्थात् विक्रम की तीसरी चौथी सदी) है। अतः वे छठीं शती के उत्तरार्ध में होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना तो किसी स्थिति में नहीं हो सकतीं। यदि वे उनकी कृतियाँ होती तो उनमें आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं के चित्रण के स्थान पर चौदह गुणस्थानों का भी चित्रण होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy