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________________ सागरमल जैन 195 शिर होते हैं, नहीं सात हाथ होते हैं । चाहे हम किसी भी परम्परा की दृष्टि से इस ऋचा की व्याख्या करें लाक्षणिक रूप में ही करना होगा। ऐसी स्थिति में इस ऋचा को जहाँ दयानन्द सरस्वती आदि वैदिक परम्परा के विद्वानों ने हिन्दू परम्परानुसार व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया वही जैन विद्वानों ने इसे जैन दृष्टि से व्याख्यायित किया । जब सहज शब्दानुसारी अर्थ संभव नहीं है तब लाक्षणिक अर्थ के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी शेष नही रहता । इसी प्रकार ऋग्वेद के 7वें मण्डल के पच्चावनवें सूक्त की सातवीं ऋचा ( 7.55.7) में यह कहा गया है कि सहस श्रृंग वाला वृषभ समुद्र से ऊपर आया । यद्यपि वैदिक विद्वान् इस ऋचा की व्याख्या में वृषभ का अर्थ सूर्य करते हैं, वे वृषभ का सूर्य अर्थ इस आधार पर लगाते हैं कि वृषभ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है जो वर्षा का कारण होता है, वह वृषभ है। क्योंकि सूर्य वृष्टि का कारण है, अतः वृषभ का एक अर्थ सूर्य भी हो सकता है । सहस श्रृंग का अर्थ भी वे सूर्य की हजारों किरणों से करते हैं, किन्तु जैन दृष्टि से इसका अर्थ यह भी किया जा सकता है कि ज्ञान रूपी सहस्रों किरणों से मण्डित ऋषभदेव समुद्रतट पर आये। इसी ऋचा की अगली पंक्ति का शब्दार्थ इस प्रकार है उस की सहायता से हम मनुष्यों को सुला देते हैं, किन्तु सूर्य की सहायता से मनुष्यों को कैसे सुलाया जा सकता है यह बात सामान्य बुद्धि की समझ में नहीं आती है। फिर भी सहस्र श्रृंग की व्याख्या तो लाक्षणिक दृष्टि से ही करना होगा। वृषभ शब्द बैल का वाची भी है और ऋग्वेद में बैल के क्रियाकलापों की अग्नि, इन्द्र आदि तुलना भी की गई है जैसे 8वें मण्डल में शिशानो वृषभो यथाग्निः श्रृंग दविध्वत, ( 8.68.13) में हम देखते हैं कि अग्नि की तुलना वृषभ से की गयी है और कहा गया है कि जैसे वृषभ अपने सीगों से प्रहार करते समय अपने सिर को हिलाता है उसी प्रकार अग्नि भी अपनी ज्वालाओं को हिलाता है। इसी प्रकार की अन्य ऋचायें भी हैं वृषभो न तिग्मश्रृंगोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत-(10.86.15 ) तीक्ष्ण सींग वाले वृषभ के समान जो अपने समूह में शब्द करता है। इसका जैन दृष्टि से लाक्षणिक अर्थ यह भी हो सकता है कि तीक्ष्ण प्रज्ञा वाले ऋषभ देव अपने समूह अर्थात् चतुर्विध संघ या परिषदा में उपदेश देते हैं और हे इन्द्र तुम भी उन पर मंथन या चिन्तन करो । ज्ञातव्य है इस ऋचा में 'न' शब्द समानता या तुलना का वाची है। इसी प्रकार 'आशुः शिसानो वृषभो न ( 10.103.1) में भी तुलना है। इस प्रकार ऋग्वेद में वृषभ शब्द तुलना की दृष्टि से बैल के अर्थ में भी अनेक स्थलों में प्रयुक्त हुआ है । उपर्युक्त समस्त चर्चाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि ऋग्वेद में जिन-जिन स्थानों पर वृषभ शब्द का प्रयोग हुआ है उन सभी स्थलों की व्याख्या वृषभ को 'ऋषभ' मानकर नहीं की जा सकती है। मात्र कुछ स्थल है जहाँ पर ऋग्वेद में प्रयुक्त वृषभ की व्याख्या ऋषभ के सन्दर्भ में की जा सकती है। इनमें भी सम्पूर्ण ऋचा को व्याख्यायित करने के लिये लाक्षणिक अर्थ का ही ग्रहण करना होगा। अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि ऋग्वेदिक काल में वृषभ एक उपास्य या स्तुत्य ऋषि के रूप में गृहीत थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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