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________________ प्रो. सागरमल जैन गतत्तोति कोटिप्पत्तचित्तो । यतत्तो ति संयतचित्तो । ठितत्तो ( दी. नि., 1.50) ति सुप्पतिट्ठितचित्तो। एतस्स वादे किंचि सासनानुलोमं पि अत्थि असुद्धलद्धितायन सब्बा दिट्ठयेव जाता । सुमंगल विलासिनी अट्टकथा (पृ. १८६ ) ऐसा कहने पर भन्ते । निगण्ठनाथपुत्त ने यह उत्तर दिया महाराज ! निगण्ट चार संवरों से संवृत्त रहता है । महाराज ! निगण्ठ चार संवरों से कैसे संवृत रहता है ? महाराज ! 1. निगण्ठ जल के व्यवहार का वारण करता है (जिसमें जल के जीव न मारे जावें), 2. सभी पापों का वारण करता है, 3. सभी पापों के वारण करने से धूतपाप होता है, 4. सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है। महाराज निगण्ठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत रहता है। महाराज निगण्ठ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निर्ग्रन्थ, गतात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा कहलाता है।" ―― 181 -- वस्तुतः यहाँ राहुल जी जिन्हें चातुर्याम संवर कह रहे हैं, वे चायाम संवर होकयू निर्ग्रन्थ साधक चातुर्याम संवर का पालन किस प्रकार करता है उसके सम्बन्ध में उल्लेख है4 मेरी दृष्टि में यहाँ "कथं " का अर्थ कौन से न होकर किस प्रकार है चातुर्याम के रूप में जैनागमों में जिनका विवरण प्रस्तुत किया गया है वे निम्न हैं 1. प्राणातिपात विरमण 2. मृषावाद् विरमण 3. अदत्तादान विरमण 4. बहिर्दादान विरमण (परिग्रह त्याग ) जैन आगम स्थानांग, समवायांग आदि में चार्तुयाम संवर का उल्लेख इसी रूप में मिलता है । Jain Education International दीघनिकाय के इस अंश का जो अर्थ राहुलजी ने किया है वह भी त्रुटिपूर्ण है। प्रथमतः यहाँ वारि शब्द का अर्थ जल न होकर वारण करने योग्य अर्थात् पाप है । सूत्रकृतांग में वीरस्तुति में महावीर को "वारिय सव्ववारं " (सूत्रकृतांग, 1/6/28) कहा गया है। यहाँ "वार" शब्द "पाप" के अर्थ में ही है, जल के अर्थ में नहीं है। पुनः जैन मुनि मात्र सचित्तजल (जीवनयुत्त जल ) के उपयोग का त्याग करता है, सर्वजल का नहीं । अतः सुमंगलविलासिनी अट्टकथाकार एवं राहुलजी द्वारा यहाँ वारि या जल अर्थ करना अयुक्तिसंगत है। क्योंकि एक वाक्यांश में "वारि" का अर्थ जल करना और दूसरे में उसी "वारि" शब्द का अर्थ "पाप" करना समीचीन नहीं है । चूँकि निर्ग्रन्थ सचित्त (जीवन-युक्त) जल के त्यागी होते थे, स्नान नहीं करते वस्त्र नहीं धोते थे । अतः इन्हीं बातों को आधार मानकर यहाँ "सव्ववारिवारितो" का अर्थ जल का त्याग करते हैं, यह मान लिया गया, किन्तु स्वयं सुमंगल विलासिनी टीका या अट्टकथा में भी स्पष्ट उल्लेख है कि निर्ग्रन्थ मात्र सचित्त जल का त्यागी होता है, सर्वजल का नहीं, अतः वारि का अर्थ जल करना उचित नहीं है। दीघनिकाय की अट्टकथा में "वारि" का जो भ्रान्त अर्थ जल किया गया था, राहुलजी का यह अनुवाद भी उसी पर आधारित है । अतः इस भ्रान्त अर्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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