SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 171 जैन आगमों में शिक्षा और वर्तमान सन्दर्भ इन गुणों की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आगमों में आचार्य कैसा होना चाहिए इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया गया था और मात्र चरित्रवान एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठावान व्यक्ति को ही आचार्यत्व के योग्य पाना गया था। ___इससे यह फलित भी होता है कि जो साधक अहिंसादि महाव्रतों का स्वयं पालन करता है तथा आजीविका अर्जन हेतु मात्र भिक्षा पर निर्भर रहता है जो स्वार्थ से परे है वही व्यक्ति आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का शिक्षक होने का अधिकारी है। विद्यार्थी कैसा होना चाहिये, इसकी चर्चा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो भिक्षाजीवी, विनीत, सज्जन व्यक्तियों के गुणों को जानने वाला, आचार्य की मनोभावों के अनुरूप आचरण करने वाला, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि को सहन करने वाला, लाभ-अलाभ में विचलित नहीं होने वाला, सेवा तथा स्वाध्याय हेतु तत्पर, अहंकार रहित और आचार्य के कठोर वचनों को सहन करने में समर्थ शिष्य ही शिक्षा का अधिकारी है।३१ ग्रन्थकार यह भी कहता है कि शास्त्रों में शिष्य की जो परीक्षा विधि कही गयी है उसके माध्यम से शिष्य की परीक्षा करके ही उसे मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त करना चाहिये। उत्तराध्ययनसूत्र में शिष्य के आचार व्यवहार के सन्दर्भ में निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो शिष्य गुरु के सान्निध्य में रहता है, गुरु के संकेत व मानोभावों को समझता है वही विनीत कहलाता है इसके विपरीत आचरण वाला अविनीत। योग्य शिष्य सदैव गुरु के निकट रहे उनसे अर्थ पूर्ण बात सीखे और निरर्थक बातों को छेड़ दे, गुरु द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करे, शूद्र व्यक्तियों के संसर्ग से दूर रहे, यदि कोई गलती हो गयी हो तो उसे छिपाये नहीं अपितु यर्थाथ रूप में प्रकट कर दे। बिना पूछे गुरु की बातों में बीच में न बोले, अध्ययन काल में सदैव अध्ययन करे। आचार्य के समक्ष बराबरी से न बैठे, न उनके आगे, न पीछे सटकर बैठे। गुरु के समीप उनसे अपने शरीर को सटाकर भी नहीं बैठे, बैठे-बैठे ही न तो कुछ पूछे और न उत्तर दे। गुरु के समीप उकुडू आसन से बैठकर हाथ जोड़कर जो पूछना हो उसे विनयपूर्वक पूछे।३ ये सभी तथ्य यह सूचित करते हैं कि जैन शिक्षा व्यवस्था में शिष्य के लिए अनुशासित जीवन जीना अवश्यक था। यह कठोर अनुशासन वस्तुतः बाहर से थोपा हुआ नहीं था, अपितु मूल्यात्मक शिक्षा के माध्यम से इसका विकास अन्दर से ही होता था, क्योंकि जैन शिक्षा व्यवस्था में सामान्यतया शिष्य में ताड़न-वर्जन की कोई व्यवस्था नहीं थी। आचार्य और शिष्य दोनों के लिए ही आगम में उल्लेखित अनुशासन का पालन करना आवश्यक था। जैन शिक्षा विधि में अनुशासन आत्मानुशासन था। व्यक्ति को दूसरे को अनुशासित करने का अधिकार तभी माना गया था, जब वह स्वयं अनुशासित जीवन जीता हो। आचार्य तुलसी ने निज पर शासन फिर अनुशासन का जो सूत्र दिया है वह वस्तुतः जैन शिक्षा विधि का सार है। शिक्षा के साथ जब तक जीवन में स्वस्फूर्त अनुशासन नहीं आयेगा तब तक वह सार्थक नहीं होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy