SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रो. सागरमल जैन 164 उसे विद्यार्थी दे रित्र निर्माण या विकास में कोई रुचि है, उसकी दृष्टि केवल वेतन दिवस । टिकी है। वह पढ़ाने के लिये नहीं पढ़ाता, अपितु पैसे के लिये पढ़ाता है। दूसरी ओर शास। मेठ और विद्यार्थी उसे गुरु नहीं "नौकर" समझते हैं। जब गुरु नौकर है तो फिर संस्कार चरि ण की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। आज तो गुरु शिष्य के बीच भाव-मोल होता सौदा हाता है। चाहे हमारे प्राचीन ग्रन्थों में "विद्यायाऽमृतमश्नुते" की बात कही गई हो, कि, आज तो विद्या अर्थकरी हो गयी है। शिक्षा के मूल-भूत उद्देश्य को ही हम भूल रहे हैं। वर्तमान सन्दर्भ में फिराक का यह कथन कितना सटीक है, जब वे कहते हैं --- सभी कुछ हो रहा है, इस तरक्की के जमाने में मगर क्या गजब है कि, आदमी इनसां नहीं होता। आज की शिक्षा चाहे विद्यार्थी को वकील, डाक्टर, इंजीनियर आदि सभी कुछ बना रही। किन्तु यह निश्चित है कि वह इन्सान नहीं बना पा रही है। जब तक शिक्षा को चरित्र निर्माण है। साथ, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के साथ नहीं जोड़ा जाता है तब तक वह मनुष्य का निर्माण नहीं कर सकेगी। हमारा प्राथमिक दायित्व मनुष्य को मनुष्य बनाना है। बालक को मानवता में संस्कार देना है। अमेरिका के प्रबुद्ध विचारक टफ्ट्स शिक्षा के उददेश्य, पद्धति और स्वरूपको स्पष्ट करते हुये लिखते हैं -- "शिक्षा चरित्र निर्माण के लिये, चरित्र के द्वारा, चरित्र की शिक्षा है।" इस प्रकार उनकी दृष्टि में शिक्षा का अथ और इति दोनों ही बालकों में चरित्र निर्माण एवं सुसंस्कारों का वपन है। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण करने हेतु सुप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन्, सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. दौलतसिंह कोठारी और शिक्षा शास्त्री डॉ, मुदालियर की अध्यक्षताओं में जो विभिन्न आयोग गठित हुये थे उन सबका निष्कर्ष यही था कि शिक्षा को मानवीय मूल्यों से जोड़ा जाय। जब तक शिक्षा मानवीय मूल्यों से नहीं जुड़ेगी, उसमें चरित्रनिर्माण और सुसंस्कारों के वपन का प्रयास नहीं होगा, तब तक विद्यालये एवं महाविद्यालयों रुपी शिक्षा के इन कारखानों से साक्षर नहीं राक्षस ही पैदा होंगे। भारतीय चिन्तन प्राचीनकाल से ही इस सम्बन्ध में सजग रहा। औपनिषदिक युग में ही शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया था -- "या विद्या सा विमुक्तये" अर्थात् विद्या वही जो विमुक्ति प्रदान करें। प्रश्न हो सकता है कि यहाँ विमुक्ति से हमारा क्या तात्पर्य है ? विमुक्ति का तात्पर्य मानवीय संत्रास और तनावों से मुक्ति है, अपनत्व और ममत्व के शुद्र घेरों से विमुक्ति है। मुक्ति का तात्पर्य है -- अहंकार, आसक्ति, राग-द्वेष और तृष्णा से मुक्ति। यही बात जैन आगम इसिभासियाइं ( ऋषिभासित) में कही गई है-- इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा। जं विज्ज साहइत्ताणां, सव्वदुक्खाण मुच्चती।। जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागति। आयाभावं च जाणाति, सा विज्जया दुक्खमोयणी।। - इतिभासियाई, 17/1-2 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy