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________________ प्रो. सागरमल जैन 146 कहा गया है। ब्राहमण प्रतिदिन राजाओं की स्तुति करते हैं और उनके लिए स्वस्ति पाठ एवं शान्ति पाठ करते हैं, लेकिन वह सब भी धन की आशा से ही किया जाता है,अतः ऐसे ब्राह्मण आप्तकाम नहीं माने जा सकते हैं। फलतः इनका अपनी श्रेष्ठता का दावा मिथ्या है। जिस प्रकार नट रंगशाला में कार्य स्थिति के अनुरूप विचित्र वेशभूषा को धारण करता है उसी प्रकार यह जीव भी संसार रूपी रंगमंच पर कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों को प्राप्त होता है। तत्त्वतः आत्मा न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र ही। वह तो अपने ही पूर्व कर्मों के वश में होकर संसार में विभिन्न स्यों में जन्म ग्रहण करता है। यदि शरीर के आधार पर ही किसी को ब्राह्मण, क्षत्रिय कहा जाय, तो यह भी उचित नहीं है। विज्ञ-जन देह को नहीं, ज्ञान ( योग्यता) को ही ब्रह्म कहते हैं। अतः निकृष्ट कहा जाने वाला शूद्र भी ज्ञान या प्रज्ञा-क्षमता के आधार पर वेदाध्ययन करने का पात्र हो सकता है। विद्या, आचरण एवं सद्गुण से रहित व्यक्ति जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण नहीं हो जाता, अपितु अपने ज्ञान, सद्गुण आदि से युक्त होकर ही ब्राह्मण होता है। व्यास, वशिष्ठ, कमठ, कंठ, द्रोण, पाराशर आदि अपने जन्म के आधार पर नहीं, अपितु अपने सदाचरण एवं तपस्या से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए थे। अतः ब्राह्मणत्व आदि सदाचार और कर्तव्यशीलता पर आधारित है -- जन्म पर नहीं। सच्चा ब्राह्मण कौन ? जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता और निम्नता का प्रतिमान माना है। उत्तराध्ययन सूत्र के पच्चीसवें अध्याय एवं धम्म पद के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसका विस्तार से विवेचन उपलब्ध है। विस्तार भय से उसकी समग्र चर्चा में न जाकर केवल कुछ गाथाओं को प्रस्तुत कर ही विराम लेगें। उसमें कहा गया है कि "जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूज्यनीय है और जो प्रियजनों के आने पर आसक्त नहीं होता और न उनके जाने पर शोक करता है। जो सदा आर्य-वचन में रमण करता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं।" "कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दाधमल हुए, शुद्ध किये गए जात रूप सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग द्वेष और भय से मुक्त है, तथा जो तपस्वी हैं, कृश है, दान्त है, जिसका मांस और रक्त अपचित (कम) हो गया है, जो सुव्रत है, शांत है, उसे ही ब्राह्मण कहा जाता है।” जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता, जो सचित्त या अचित्त, थोडा या अधिक अदत्त नहीं लेता है, जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" इसी प्रकार जो रसादि में लोलप नहीं है, जो निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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