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________________ प्रो. सागरमल जैन 251 किसका सहारा लेंगे ? क्या आज तक कोई भी आगम ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिये मात्र आदर्श के आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है। यदि वे स्वयं यह मानते हैं कि आदर्शों में अशुद्धियाँ स्वाभाविक हैं, तो फिर उन्हें शुद्ध किस आधार पर किया जायेगा ? मैं भी यह मानता हूँ कि सम्पादन में आदर्श प्रति का आधार आवश्यक है किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है, उसमें दोनों का सहयोग आवश्यक है। मात्र यही नहीं अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है। जैसा कि आचार्य श्री तुलसीजी ने मुनि श्री जम्बूविजयजी को अपनी सम्पादन शैली का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था। आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धृत मुनि श्री जम्बूविजयजी का यह कथन कि आगमों में अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ प्रायः नहीं मिलते हैं। स्वयं ही यह बताता है कि क्वचित् तो मिलते हैं। पुनः इस सम्बन्ध में डॉ. चन्द्रा ने आगमोदय समिति के संस्करण, टीका तथा चूर्णि के संस्करणों से प्रमाण भी दिये हैं। वस्तुतः लेखन की सुविधा के कारण ही अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ आदर्शों में कम होते गये हैं। किन्तु लोकभाषा में वे आज भी जीवित हैं। अतः चन्द्रा जी के कार्य को प्रमाणरहित या आदर्शरहित कहना उचित नहीं है। वर्तमान में उपलब्ध आगमों के संस्करणों में लाडनू और महावीर विद्यालय के संस्करण अधिक प्रमाणिक माने जाते हैं, किन्तु उनमें भी "त" श्रुति और "य" श्रुति को लेकर या मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप सम्बन्धी जो वैविध्य है, वह न केवल आश्चर्यजनक है, अपितु विद्वानों के लिए चिन्तनीय भी हैं। यहाँ महावीर विद्यालय से प्रकाशित स्थानांगसूत्र के ही एक दो उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तजहा-सुती नाम एगे सुती, सुई नाम एगे असुई, चउभंगो। एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा सुती णाम एगे सुती, घउभंगो। [चतुर्थ स्थान, प्रथम उद्देशक, सूत्रक्रमांक 241, पृ. 941 इस प्रकार यहाँ आप देखेंगे कि एक ही सूत्र में "सुती" और "सुई" दोनों रूप उपस्थित हैं। इससे मात्र शब्द-रूप में ही भेद नहीं होता है, अर्थ भेद भी हो सकता है, क्योंकि "सुती" का अर्थ है सत से निर्मित, जबकि "सुई" (शुचि) का अर्थ है पवित्र । इस प्रकार इसी सूत्र में "णाम" और "नाम" दोनों शब्द रूप एक ही साथ उपस्थित हैं। इसी स्थानांगसूत्र से एक अन्य उदाहरण लीजिए -- सूत्र क्रमांक 445, पृ. 197 पर "निरन्थ" शब्द के लिए प्राकृत शब्दरूप "नियंठ" प्रयुक्त है तो सत्र 446 में "निग्गंथ" और पाठान्तर में "नितंठ" रूप भी दिया गया है। इसी ग्रन्थ में सूत्र संख्या 458, पृ. 197 पर धम्मत्थिकातं, अधम्मत्थकातं और आगासत्थिकायं -- इस प्रकार "काय" शब्द के दो भिन्न शब्द रूप काय और कातं दिये गये हैं। यद्यपि "त" श्रुति प्राचीन अर्द्धमागधी की पहचान है, किन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में सुती, नितंठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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