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________________ प्रो. सागरमल जैन 238 में प्रयुक्त होते हैं । किन्तु उत्तराध्ययन में ये दोनों शब्द भिन्न-भिन्न स्थितियों के वाचक हैं। यहाँ कहा गया कि अमुक्त का निर्वाण नहीं ( अमोक्खस्स नत्थि निव्वाणं ) । इसलिए प्राचीन प्राकृत और पालि साहित्य के अनुवाद और उनमें प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का निर्धारण एक कठिन और श्रमसाध्य कार्य है जो विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन के अभाव में सम्भव नहीं है, जो शब्द किसी काल में पर्यायवाची रूप में या भाषा सौष्ठव के लिए प्रयुक्त होते थे, व्युत्पत्ति और प्रतिभा के आधार पर उन्हें भिन्न-भिन्न अर्थ का वाचक बना दिया है। पालिसाहित्य में निगण्ठ- नाटपुत्त के सन्दर्भ में " सव्ववारिवारितो" शब्द का प्रयोग हुआ है । अनुवादकों ने "वारि" का अर्थ जल किया, जबकि सूत्रकृतांग के वीरस्तुति नामक अध्ययन के आधार पर देखें तो उसमें प्रयुक्त वारि शब्द का अर्थ जल न होकर पाप होगा क्योंकि सूत्रकृतांग में महावीर की स्तुति करते हुए कहा गया है। " से वारिया सव्व वारं इत्थीसरायभत्तं" अर्थात् उन्होंने लोगों को सभी पाप कर्मों, स्त्री और रात्रिभोजन से निवृत्त किया । ―― यहाँ मैं इस बात पर विशेष रूप से बल देना चाहूँगा कि जहाँ जैन आगमों के पारिभाषित शब्दों के अर्थ-निर्धारण के लिए बौद्ध पिटक का अध्ययन आवश्यक है वहीं बौद्ध पिटक साहित्य के शब्दों के अर्थ निर्धारण के लिए जैन आगमों का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि ये दोनों परम्पराएँ एक ही देश और काल की उपज हैं। बिना बौद्ध साहित्य के अध्ययन के आचारांग जैसे प्राचीनस्तर के ग्रन्थ में प्रयुक्त "विपस्सि, तथागत, पडिसंखा, आयतन, संधि आदि शब्दों के अर्थ स्पष्ट नहीं हो सकते उसी प्रकार पिटक साहित्य में प्रयुक्त "वारि" जैसे अनेक शब्दों का अर्थ बिना जैन आगमों के अध्ययन से स्पष्ट नहीं हो सकता । हमें यह स्मरण रखना होगा कि कोई भी परम्परा शून्य में उत्पन्न नहीं होती उसका एक देश और काल होता है जहाँ से वह अपनी शब्दावली ग्रहण करती है। यह ठीक है कि अनेक बार उस शब्दावली को नया अर्थ दिया जाता है फिर भी शब्द के मूल अर्थ को पकड़ने के लिए हमें उसे देश, काल व परम्परा का ज्ञान भी प्राप्त करना होगा, जिसमें उसका साहित्य निर्मित हुआ है । अतः पारिभाषिक शब्दों के अर्थ-निर्धारण की प्रक्रिया में न तो उस देश व काल की उपेक्षा की जा सकती है, जिसमें उन शब्दों ने अपना अर्थ प्राप्त किया है और न समकालीन परम्पराओं के तुलनात्मक अध्ययन के बिना ही अर्थ-निर्धारण की प्रक्रिया को सम्पन्न किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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