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________________ हिन्दू धर्म में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को जो देव रूप माना गया है, उसका आधार भी इनका जीवन के अधिष्ठान रूप होना ही है। जैन परम्परा में भगवान महावीर से पूर्व भगवान पार्श्व के काल में भी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीवन होने की यह अवधारणा उपस्थित थी । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक और सकायिक ऐसे षट्जीवनिकायों की चर्चा प्राचीन जैन आगमों का प्रमुख विषय रहा है। आचारांगसूत्र ( ई. पू. पाँचवी शती) का तो प्रारम्भ ही इन षट्जीवनिकायों के निरूपण से तथा उनकी हिंसा के कारणों एवं उनकी हिंसा से बचने के निर्देशों की चर्चा से ही होता हैं । इन षट्जीवनिकायों की हिंसा नहीं करने के सन्दर्भ में जैन आचार्यों के जो निर्देश हैं, वे पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने की दृष्टि से आज सर्वाधिक मूल्यवान बन गये हैं। आगे हम उन्हीं की चर्चा करेगें । - mnde 136 पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म -- यह एक अनुभूत प्राकृतिक तथ्य है एक जीवन की अभिव्यक्ति और अवस्थिति दूसरे शब्दों में उसका जन्म, विकास और अस्तित्व दूसरे जीवनों के आश्रित है। इससे हम इंकार भी नहीं कर सकते हैं । किन्तु इस सत्य को समझने की जीवन- दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न रही हैं। एक दृष्टिकोण यह रहा है कि यदि एक जीवन दूसरे जीवन पर आश्रित है तो हमें यह अधिकार है कि हम जीवन के दूसरे रूपों का विनाश करके भी हमारे अस्तित्व को बनाये रखें। पूर्व में 'जीवो जीवस्य भोजनम्' और पश्चिम में 'अस्तित्त्व के लिये संघर्ष (Struggle for existence ) के सिद्धान्त इसी दृष्टिकोण के कारण अस्तित्त्व में आये । इनकी जीवन-दृष्टि हिंसक रही। इन्होंने विनाश से विकास का मार्ग चुना। आज पूर्व से पश्चिम तक इसी जीवन-दृष्टि का बोल-बाला है। जीवन के दूसरे रूपों का विनाश करके मानव के अस्तित्त्व को बचाने के प्रयत्न होते रहे हैं । किन्तु अब विज्ञान की सहायता से इस जीवन-दृष्टि का खोखलापन सिद्ध हो चुका है अब विज्ञान यह बताता है कि जीवन के दूसरे रूपों का अनवरत विनाश करके हम मानव का अस्तित्त्व भी नहीं बचा सकते हैं। इस सम्बन्ध में दूसरी जीवन दृष्टि यह रही कि एक जीवन, जीवन के दूसरे रूपों के सहयोग पर आधारित है -- जैनाचार्यों ने इसी जीवन-दृष्टि का उद्घोष किया था। आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व आचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र प्रस्तुत किया 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्ं 4 अर्थात् जीवन एक दूसरे के सहयोग पर आधारित है। विकास का मार्ग हिंसा या विनाश नहीं परस्पर सहकार है । एक-दूसरे के पारस्परिक सहकार या सहयोग पर ही जीवन-यात्रा चलती है । जीवन के दूसरे रूपों के सहकारी बनकर ही हम अपना जीवन जी सकते हैं । प्राणी जगत् पारस्परिक सहयोग पर आश्रित है। हमें अपना जीवन जीने के लिये दूसरे प्राणियों के सहयोग की और दूसरे प्राणियों को अपना जीवन जीने के लिये हमारे सहयोग की आवश्यकता है। हमें जीवन जीने ( भोजन, प्राणवायु आदि) के लिये वनस्पति जगत् की आवश्यकता है तो वनस्पति को अपना जीवन जीने के लिये जल, वायु, खाद आदि की आवश्यकता है। वनस्पति से निमृत आक्सीजन, फल, अन्न आदि से हमारा जीवन चलता है तो हमारे द्वारा निसृत कार्बनडाई आक्साईड एवं मल-मूत्र आदि से उनका जीवन चलता है। अतः जीवन जीने के लिये जीवन के दूसरे रूपों का सहयोग तो हम ले सकते हैं, किन्तु उनके विनाश का हमें अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके विनाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org --
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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