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________________ डा. सागरमल जन ४6 इस समाधिमरण को संयमी जीवन के लिए अधिक श्रेष्ठ माना गया है। भक्तप्रत्याख्यान के अतिरिक्त समाधिमरण का एक रूप इंगिनिमरण बताया है। इसमें साधक दूसरों से सेवा लेने का विविध रूप से परित्याग कर देता है, ऐसा भिक्षु हरियाली पर नहीं सोए अपितु जीवों से रहित स्थण्डिल भूमि पर ही सोए। वह अनाहार भिक्षु देह आदि के प्रति ममत्व का विसर्जन करके परीषहों से आक्रान्त होने पर उन्हें समभाव से सहन करे। इन्द्रियों के ग्लान हो जाने पर वह मुनि समितिपूर्वक ही अपने हाथ-पैर आदि का संकोचविस्तार करे, क्योंकि जो अचल एवं समभाव से युक्त होता है वही निन्दित नहीं होता। वह जब लेटे-लेटे या बैठे-बैठे थक जाय तो शरीर के संधारण के लिए थोड़ा गमनागमन करे या हाथ-पैरों को हिलाएँ, किन्तु यदि सम्भव हो तो अचेतनवत निश्चेष्ट हो जाये। इस अद्वितीय मरण पर आसीन व्यक्ति उन काष्ठ-स्तम्भों या फलक आदि का सहारा न ले, जो दीमक आदि से युक्त हो अथवा वर्जित हो। जो साधक इंगिनिमरण से भी उच्चतर प्रायोपगमन या पादोपगमन संथारे को ग्रहण करता है वह सभी अंगों का निरोध करके अपने स्थान से चलित नहीं होता है-- यह प्रायोपगमन, भक्त प्रत्याख्यान और इंगिनिमरण की अपेक्षा उत्तम स्थान है। ऐसा भिक्ष जीव-जन्तु से रहित भूमि को देखकर वहाँ निश्चेष्ट होकर रहे और वहाँ अपने शरीर को स्थापित कर यह विचार करे कि जब शरीर ही मेरा नहीं है तो फिर मुझे परीषह या पीड़ा कैसी? वह संसार के सभी भोगों को नश्वर जानकर, उनमें आसक्त न हो। देवों द्वारा निमंत्रित होने पर वह देव माया पर श्रद्धा न करे। सभी भोगों में अमूछित होकर मृत्यु के अवसर का पारगामी वह तितिक्षा को ही परम हितकर जानकर निर्ममत्वभाव को ही अन्यतम साध्य माने। उत्तराध्ययन और समाधिमरण इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांग में समाधिमरण के प्रकार, उसकी प्रक्रिया तथा उसे किन स्थितियों में ग्रहण किया जा सकता है, इसकी विस्तृत चर्चा है। आचारांग के पश्चात प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगम उत्तराध्ययन में भी समाधिमरण का विवरण उसके 5वें एवं 36वें अध्याय में उपलब्ध होता है। उसके पाँचवें अध्याय में सर्वप्रथम मृत्यु के दो रूपों की चर्चा है -- 1. अकाम मरण और, 2. सकाममरण। उसमें यह बताया गया है कि अकाममरण बार-बार होता है जबकि सकाममरण एक ही बार होता है। ज्ञातव्य है कि यहाँ अकाममरण का तात्पर्य कामना से रहित मरण न होकर आत्म पुरुषार्थ से रहित निरुद्देश्य या निष्प्रयोजन पूर्वक मरण से है। इसी प्रकार सकाममरण का तात्पर्य पुरुषार्थ या साधना से युक्त सोद्देश्यमरण या मुक्ति के प्रयोजन पूर्वक मरण से है। उत्तराध्ययन के अनुसार अकाममरण करने वाला व्यक्ति संसार में आसक्त होकर आनाचार का सेवन करता है और काम-भोगों के पीछे भागता है, ऐसा व्यक्ति मृत्यु के समय भय से संत्रस्त होता है और हारने वाले धुर्त जुआरी की तरह शोक करता अकाममरण को अर्थात् निश्प्रयोजन मरण को प्राप्त होता है, जबकि सकाममरण पण्डितों को प्राप्त होता है। संयत जितेन्द्रिय पुण्यात्माओं को ही। अति प्रसन्न अर्थात् निराकुल एवं आघात रहित यह मरण प्राप्त होता है। ऐसा मरण न तो सभी भिक्षुओं को मिलता है, न सभी गृहस्थों को। जो भिक्षु हिंसा आदि से निवृत्त होकर संयम का अभ्यास करता है, उन्हें ही ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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