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________________ डॉ. सागरमल जैन अनेक कथाएँ संकलित हैं । मेरी दृष्टि में बृहत् कथाकोश की कथाओं का मूल स्रोत चाहे ये प्रकणक ग्रन्थ रहे हों, किन्तु ग्रन्थकार ने भगवती आराधना की कथाओं का अनुकरण करके ही यह ग्रन्थ लिखा हैं, वह प्रकीर्णकों से परिचित नहीं रहा है। आज आवश्यकता है कि दोनों परम्पराओं के समाधिमरण सम्बन्धी इन ग्रन्थों एवं उनकी कथाओं का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जाय । 82 यद्यपि मैं इस आलेख में इस तुलनात्मक अध्ययन को प्रस्तुत करना चाहता था, किन्तु समय सीमा को ध्यान में रखकर वर्तमान में यह सम्भव नहीं हो सका है 1 समाधिमरण की यह अवधारणा अति प्राचीन है । भारतीय संस्कृति की श्रमण और ब्राह्मण -- इन दोनों परम्पराओं में इसके उल्लेख मिलते हैं, जिसकी विस्तृत चर्चा हमने 'समाधिमरण ( मृत्युवरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन' नामक लेख में, जो सम्बोधि, वर्ष (1977-78) अंक 6 नं. 3-4 में पृ. 39-49 पर प्रकाशित है, की है। वस्तुतः यहाँ हमारा विवेच्य मात्र अर्धमागधी आगम है। इनमें आचारांग प्राचीन एवं प्रथम अंग आगम है । आचारांग के अनुसार समत्व या वीतरागता की साधना ही धर्म का मूलभूत प्रयोजन है । आचारांगकार की दृष्टि में समत्व या वीतरागता की उपलब्धि में बाधक तत्त्व ममत्व है और इस ममत्व का घनीभूत केन्द्र व्यक्ति का अपना शरीर होता है । अतः आचारांगकार निर्ममत्व की साधना हेतु देह के प्रति निर्ममत्व की साधना को आवश्यक मानता है । समाधिमरण देह के प्रति निर्ममत्व की साधना का ही प्रयास है। यह न तो आत्महत्या है और न तो जीवन से भागने का प्रयत्न । अपितु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही अपरिहार्य बनी मृत्यु का स्वागत है । वह देह के पोषण के प्रयत्नों का त्याग करके देहातीत होकर जीने की एक कला है । आचारांगसूत्र और समाधिमरण आचारांगसूत्र में जिन परिस्थितयों में समाधिमरण की अनुशंसा की गयी है वे विशेष रूप से विचारणीय हैं । सर्वप्रथम तो आचारांग में समाधिमरण का उल्लेख उसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के विमोक्ष नामक अष्टम् अध्ययन में हुआ है । यह अध्ययन विशेष रूप से शरीर, आहार, वस्त्र आदि के प्रति निर्ममत्व एवं उनके विसर्जन की चर्चा करता है। इसमें वस्त्र एवं आहार के विसर्जन की प्रक्रिया को समझाते हुए ही अन्त में देह - विसर्जन की साधना का उल्लेख हुआ है । आचारांगसूत्र समाधिमरण किन स्थितियों में लिया जा सकता है इसकी संक्षिप्त किन्तु महत्त्वपूर्ण विवेचना प्रस्तुत करता है। इसमें समाधिमरण स्वीकार करने की तीन स्थितियों का उल्लेख है -- 1. जब शरीर इतना अशक्त व ग्लान हो गया हो कि व्यक्ति संयम के नियमों का पालन करने में असमर्थ हो और मुनि के आचार नियमों को भंग करके ही जीवन बचाना सम्भव हो, तो ऐसी स्थिति में यह कहा गया है कि आचार नियमों के उल्लंघन की अपेक्षा देह का विसर्जन ही नैतिक है। आचार मर्यादा का उल्लंघन करके जीवन का रक्षण वरेण्य नहीं है । उसमें कहा गया है कि जब साधक यह जाने कि वह निर्बल और मरणान्तिक रोग से आक्रान्त हो गया है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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