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________________ 75 बिना में जो कुछ निकटता परिलक्षित होती है, वह यह सूचित करती है कि सम्भवतः का मूल स्रोत रामपुत्त की ध्यान पद्धति रही होगी। इस संबंध में तुलनात्मक दृष्टि से ययन किया जाना अपेक्षित है। षट्आवश्यकों में कायोत्सर्ग को भी एक आवश्यक माना गया है। कायोत्सर्ग ध्यान धना पूर्वक ही होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। प्रतिक्रमण में अनेक बार कायोत्सर्ग (क्यान) किया जाता है। वर्तमान काल में भी यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से जीवित है। आज भी ध्यान की इस परम्परा में तत्संबंधी दोषों के चिन्तन के अतिरिक्त नमस्कार मंत्र, दुर्विंशतिस्तव के माध्यम से पंचपरमेष्टी अथवा तीर्थंकरों का ध्यान किया जाता है। मात्र यह है कि ध्यान की इस समग्र क्रिया में, जो सजगता अपेक्षित थी, वह समाप्त हो है और ये सब ध्यान संबंधी प्रक्रियाएं रूढि मात्र बनकर रह गई हैं। यद्यपि इन क्रियाओं की उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि ध्यान की इन प्रक्रियाओं में चेतना को तत रूप से जाग्रत या ज्ञाता-दृष्टा भाव में स्थिर रखने का प्रयास किया जाता रहा है। आगम युग तक जैन धर्म में ध्यान का उद्देश्य मुख्य रूप से आत्मशुद्धि या त्रिशुद्धि ही था अथवा यों कहें कि वह चित्त को समभाव में स्थिर रखने का प्रयास था। मध्ययुग में जब भारत में तंत्र और हठयोग संबंधी साधनाएं प्रमुख बनीं तो ध्यान प्रक्रिया में परिवर्तन आया। आगमिक काल में ध्यान साधना में शरीर, इन्द्रिय, मन और चित्त वृत्तियों के प्रति सजग होकर चेतना को दृष्टा भाव या साक्षीभाव में स्थिर किया आता था, जिससे शरीर और मन के उद्वेग और आकुलताएं शान्त हो जाती थीं। दूसरे शब्दों में वह चैत्तसिक समत्व अर्थात् सामायिक की साधना थी, जिसका कुछ रूप आज ॥ विपश्यना में उपलब्ध है। किन्तु जैसे-जैसे भारतीय समाज में तंत्र और हठयोग का माव बढ़ा वैसे-वैसे जैन साधना पद्धति में भी परिवर्तन आया। जैन ध्यान पद्धति में दिस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ आदि ध्यान की विधियाँ और पार्थिव, आग्नेयी, वायवी और कणी जैसी धारणाएं सम्मिलित हुईं। बीजाक्षरों और मंत्रों का ध्यान करने की परम्परा कसित हुई और षट्चक्रों के भेदन का प्रयास भी हुआ । यदि हम जैन परम्परा में ध्यान की प्रक्रिया का इतिहास देखते हैं तो यह स्पष्ट गता है कि उस पर अन्य भारतीय ध्यान एवं योग की परम्पराओं का प्रभाव आया है, जो रिभद्र के पूर्व से ही प्रारंभ हो गया था। हरिभद्र ने उनकी ध्यान विधि को लेकर भी उसमें अपनी परम्परा के अनुरूप बहुत कुछ परिवर्तन किये थे। मध्ययुग की जैन ध्यान साधना उस युग की योग-साधना विधि से पर्याप्त रूप से प्रभावित हुई थी। मध्ययुग में ध्यान साधना का प्रयोजन भी बदला। जहां प्राचीन काल में ध्यान साधना का प्रयोजन मात्र आत्म-विशुद्धि या चैत्तसिक समत्व था, वहां मध्य युग में उसके साथ विभिन्न ऋद्धियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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