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________________ प्रो. सागरमल जैन तो उसके परिणामस्वरूप कर्म परमाणुओं का आकर्षण होता है, जिसे वे आसव कहते हैं। जब चित्तवृत्ति में क्रोधादि कषाय विद्यमान हो तथा शरीर एवं इन्द्रियों की प्रवृत्ति असंयमित हो तो उसके परिणामस्वरूप कर्म का बन्ध होता है या कर्म संस्कार बनते हैं। प्रत्येक कर्म संस्कार काल-क्रम में अपना विपाक या फल देता है और इस प्रकार कर्म और विपाक की परम्परा चलती रहती है। इस तथ्य को हम ऐसे भी समझा सकते हैं कि जब व्यक्ति द्वेष आदि के वशीभत होकर क्रोध करता है तो उसमें क्रोध के संस्कार बनते हैं। समय-समय पर क्रोध के इन संस्कारों की अभिव्यक्ति होने से क्रोध उसकी जीवन शैली का ही अंग बन जाता है और यही उसका बन्धन है। जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा में जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति रही हुई है, वह इन कर्म संस्कारों के कारण कुंठित हो जाती है। आत्मिक शक्ति का कुंठित होना ही बन्धन है। कर्म का यह बन्धन आठ प्रकार का माना गया है, 1. जो कर्म आत्मा की ज्ञानात्मक शक्ति को कुंठित करते हैं वे ज्ञानावरण कहलाते हैं, 2. जिनके द्वारा आत्मा की अनुभूति सामर्थ्य सीमित होती है उसे दर्शनावरण कहते हैं, 3. जिसके द्वारा सुख-दुःख की अनुभूति होती है, वे वेदनीय कर्म है, 4. जिन कर्म संस्कारों के कारण व्यक्ति का दृष्टिकोण एवं चारित्र दूपित हो उसे मोहनीय कर्म कहा गया है। 5. जो कर्म हमारे व्यक्तित्व या चैत्तसिक एवं शारीरिक संरचना के कारण होते हैं उन्हें नामकर्म कहते हैं, 6. जिन कर्मों के कारण व्यक्ति को अनुकूल व प्रतिकूल परिवेश उपलब्ध होती है, वह गोत्रकर्म है, 7. इसी प्रकार जो कर्म एक शरीर विशेष में हमारी आयु मर्यादा को निश्चित करता है, उसे आयुष्यकर्म कहते हैं। 8. अन्त में जिस कर्म द्वारा हमें प्राप्त होने वाली उपलब्धियों में बाधा हो वह अन्तरायकर्म है। जैनदर्शन के अनुसार इन कर्मों के वश होकर प्राणी संसार में जन्म-मरण करता है और सांसारिक सुख-दुःख की अनुभूति करता है। जैनधर्म का प्रयोजन आत्मा को इस कर्म-मल से मुक्त कर विशुद्ध बनाना है। इसके लिए संवर का उपदेश दिया गया है। जिस प्रकार जिस कमरे की खिड़कियाँ खुली हों उसमें धूल के आगमन को नहीं रोका जा सकता है, उसी प्रकार जब आत्मा की इन्द्रियां रूपी खिड़कियाँ खुली हों उसमें कर्म रज रूपी मल के आगमन को रोका नही जा सकता है। अतः आत्मविशुद्धि के लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति इन इन्द्रियरूपी खिड़कियों को बन्द करें अर्थात् इन्द्रियों का संयम करें। जैनधर्म में इन्द्रिय संयम का मतलब यह नहीं है कि इन्द्रियों की प्रवृत्ति ही न होने दी जाये। महावीरस्वामी ने कहा था कि इन्द्रियों एवं उनके विषयों की उपस्थिति की दशा में इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो, यह सम्भव नहीं है। संयम का तात्पर्य है इन ऐन्द्रिक विषयों की अनुभूति की दशा में हमारा चित्त राग-द्वेय की वृत्ति से आकान्त न हो। सतत् अभ्यास द्वारा जब ऐन्द्रिक अनुभूतियों में चित्त अनासक्त रहना सीख जाता है तो संयम की साधना सफल होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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