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________________ 59 ARUNNAOPARAN ज्यान शब्द की जैन परिभाषाएँ के सामान्यतया अध्यवसायों (चित्तवृत्ति) का स्थिर होना ही ध्यान कहा गया है। दूसरे ब्दों में मन की एकाग्रता को प्राप्त होना ही ध्यान है। है. इसके विपरीत जो मन चंचल है उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता कहा जाता और इस प्रकार ध्यान वह स्थिति है जिसमें चित्त वृत्ति की चंचलता समाप्त हो जाती है और वह किसी एक विषय पर केन्द्रित हो जाती है। तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अनेक अर्थों 7 आलम्बन टेनेवाली चिन्ता का निरोध ध्यान है। दूसरे शब्दों में जब चिन्तन को अन्यान्य विषयों से हटा कर किसी एक ही वस्तु में केन्द्रित कर दिया जाता है तो वह ध्यान बन जाता है। यद्यपि भगवती आराधना में एक ओर चिन्ता निरोध से उत्पन्न एकाग्रता को ध्यान कहा गया है किन्तु दूसरी ओर उसमें राग-द्वेष और मिथ्यात्व से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करनेवाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है। आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में ध्यान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित चेतना की जो अवस्था है वही ध्यान है। इस गाथा में पण्डित बालचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री ने "दंसणणाण समग्गं' का अर्थ सम्यक्-दर्शन व सम्यक् ज्ञान से परिपूर्ण किया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह अर्थ उचित नहीं है। दर्शन और ज्ञान की समग्रता (समग्गं) का अर्थ है ज्ञान का भी निर्विकल्प अवस्था में होना। सामान्यतया ज्ञान विकल्पात्मक होता है और दर्शन निर्विकल्प। किन्तु जब ज्ञान चित्त की विकल्पता से रहित होकर दर्शन से अभिन्न हो जाता है, तो वहीं ध्यान हो जाता है। इसीलिए अन्यत्र कहा भी है कि ज्ञान से ही ध्यान की सिद्धि होती है।५ ध्यान शब्द की इन परिभाषाओं में हमें स्पष्ट रूप से एक विकासक्रम परिलक्षित होता है। फिर भी मूल रूप में ये परिभाषाएं एक दूसरे की विरोधी नहीं हैं। चित्त का विविध विकल्पों से रहित होकर एक विकल्प पर स्थिर हो माना और अन्त में निर्विकल्प हो जाना ही ध्यान है। क्योंकि ध्यान की अन्तिम अवस्था में सभी विकल्प समाप्त हो जाते हैं। ध्यान का क्षेत्र * ध्यान के साधन दो प्रकार के माने गये हैं-एक बहिरंग और दूसरा अन्तरंग। ध्यान के बहिरंग साधनों में ध्यान के ये ग्य स्थान (क्षेत्र), आसन, काल आदि का विचार किया १) ध्यानस्तव (जिनभद्र, प्र. वीर सेवा मंदिर) २ २) तत्त्वार्थसूत्र ९।२७ ३) भगवती आराधना, विजयोदया टीका - देखें ध्यान शतक प्रस्तावना पृ. २६ ४) पंचास्तिकाय १५२ ५) णाणेण झाणसिद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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